Friday, July 29, 2011

सुरक्षित देश की सीमाओं में असुरक्षित बचपन !


क्या आप जानते हैं कि भारत के ग्रामीण इलाकों में तीन साल से कम उम्र के 40% बच्चों का वजन औसत से कम है, जबकि 45ø का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है। बच्चों को पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराने के मामले में भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे है। बच्चों को पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराने के मामले में 51 देशों के बीच भारत का स्थान 22वां है। सरकारी आकड़ों के लिहाज से देश की 37.2% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो यह दर्शाती है कि देश में गरीबी बहुत तेजी से बढ़ रही है यानि जितना हम सोचते हैं उससे कहीं ज्यादा बच्चे गरीबी में जीने को मजबूर हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ख्ॅण्भ्ण्व्ण्, के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से 49% भारत में हैं। अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम बड़े बड़े दावों के बावजूद भारत में बच्चों की कुपोषण से होने वाली मौतें बढ़ती ही जा रही हैं। देश में एक सेकेण्ड के भीतर 5 साल के नीचे का एक बच्चा कुपोषण के कब्जे में आ जाता है।
इसी तरह देश के 3.5 करोड़ बच्चे बेघर हैं जिनमें से 35000 बच्चों को ही आश्रय मिल सके हैं। इन आश्रयों में से भी बहुत सारे गैर सरकारी संगठनों द्वारा चलाये जा रहे हैं। मानवाधिकार संगठन के मुताबिक फुटपाथ पर रात बिताने वाले करीब 1 करोड़ बच्चों में से ज्यादातर को यौन-शोषण और सामूहिक हिंसा झेलनी पड़ती हैं। दिल्ली में जून 2008 से लेकर जनवरी 2009 तक 2210 बच्चे लापता हुए हैं। दिल्ली में एक दिन में औसतन 17 बच्चे गायब हो रहे हैं। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में हर साल 72 लाख बच्चे गुलामी का शिकार हो रहे हैं। इनमें से एक तिहाई दक्षिण एशियाई देशों के होते हैं। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल 45 हजार बच्चे गायब हो रहे हैं। अध्ययन कहते हैं कि गायब हुए बच्चों से मजदूरी कराई जाती है, या उन्हें सेक्स वर्कर बना दिया जाता है।
हालांकि केंद्र सरकार उन राज्य सरकारों के प्रति नाराजगी जताती रही है है जो केंद्र की ‘समेकित बाल संरक्षण योजना’ पर हस्ताक्षर तो चुके हैं मगर उसके बाद से अपने यहां बाल संरक्षण आयोग का गठन तक नहीं कर सके हैं। कुपोषण, असुरक्षा जैसी तमाम समस्याओं की मार झेलते भारतीय बच्चों की एक बड़ी समस्या अनेक कारणों से की जाने वाली मजदूरी भी है। बाल अधिकारों से जुड़ी अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों का हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद भारत ‘बाल मजदूरों का गढ़’ बन चुका है। पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं, जबकि केंद्र सरकार के अनुसार देश में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं जिनमें से 12 लाख खतरनाक उद्योगों में काम करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के बाल मजदूरी से जुड़े आकड़ों के मुताबिक सेक्स इंडस्ट्री में खासतौर से लड़कियों की तस्करी विभिन्न यौन गतिविधियों के लिए हो रही है। इसी तरह घरेलू मजदूरी में भी लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है।
तस्करी और लापता बच्चों के बीच गहरे रिश्ते का खुलासा एनएचआरसी की रिसर्च रिपोर्ट ;2004द्ध भी करती है जिसमें कहा गया है कि भारत में हर साल 30 हजार से ज्यादा बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज होते हैं, इनमें से एक-तिहाई का पता नहीं चलता है। दक्षिण एशिया में दुनिया के किसी अन्य हिस्से के मुकाबले सर्वाधिक बाल-विवाह भारत में होते हैं। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5% ;करीब आधीद्ध औरतें ऐसी हैं जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इनमें 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22% ;करीब एक चौथाईद्ध औरतें ऐसी हैं जो 18 साल के पहले मां बनीं हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73% ;सबसे ज्यादाद्ध बच्चे पैदा हुए हैं। फिलहाल इन बच्चों में 67% ;आधे से बहुत ज्यादाद्ध कुपोषण के शिकार हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक बाल-विवाह बच्चियों का जीवन बर्बाद कर रहा है। देश में बच्चों का लिंग अनुपात 976ः1000 है, जो कुल लिंग अनुपात 992ः1000 के मुकाबले बहुत कम है।
शिक्षा के लिहाज से तो बच्चों की हालात कुछ ज्यादा ही पतली है। देश की 40% बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं। 48% बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं और 6 से 14 साल तक की कुल लड़कियों में से 50% लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं। इन सबके बाबजूद पिछले बजट में बच्चों के हकों से जुड़े कई शब्दों से लेकर ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘मिड डे मिल’ जैसे योजनाओं को अपेक्षित जगह नहीं दी गई। कुल बजट में 25% की बढ़ोतरी तो की गई है मगर बच्चों की शिक्षा पर महज 10% की ही बढ़ोतरी हुई है यानी आमतौर पर बढ़ोतरी दर में से बच्चों की शिक्षा में 15% की कमी हुई है। जहां बाल-कल्याण की विभिन्न योजनाएं असफल होती दिख रही हैं, वहीं बच्चों के कल्याण के लिए बजट ;2009-10द्ध में राशि का प्रावधान अपेक्षित अनुपात में घोषित नहीं किया जाता है। जरूरतमंद बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा को अनदेखा किया गया है। अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस में कुल बजट का 6.7% हिस्सा सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है, मगर भारत में कुल बजट का मात्र 3% शिक्षा और 1% स्वास्थ्य पर खर्च होता है। अगर भारत सरकार यह दावा करती है कि वह बाल कल्याण और सुरक्षा के लिए प्रयासरत है तो उसे इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि- आखिर स्वास्थ्य की दृष्टि से भारत अपने से भी गरीब कहे जाने वाले पिछड़े देशों से भी पीछे क्यों खड़ा हुआ है?
- शिरीष खरे
- द्वाराः ‘चाइल्ड राइट्स एंड यू’, 189/ए, आनंद एस्टेट, साने गुरूजी मार्ग, चिंकपोकली स्टेशन के पासद्ध, मुम्बई-400011

क्या कभी बंद हो सकेगा - शिक्षक तबादला उद्योग ?


पिछले काफी वर्षो से हम सभी देखते आ रहे हैं कि एक शैक्षणिक सत्र के समाप्त होते ही प्रदेश के सभी शिक्षकों में अपने-अपने तबादलों को लेकर एक अंतहीन दौड़-धूप, भागम-भाग शुरू हो जाती है। कोई किसी सरकारी अधिकारी के यहां, कोई बिचौलिये के यहां, कोई छुटभैये राजनेता के यहां, तो कोई तगड़ी पहुंच, सिफारिश या पैसों के दम पर बड़े-बड़े नेताआंे के यहां, मंत्रियों व विधायकों के यहां - यानि, सब अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार चक्कर-दर-चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं। कुछ खुश किस्मत व चालाक लोग अपने इस प्रयास में सफल होकर अपना अथवा अपने चहेतों का तबादला इच्छित स्थान पर करवा पाने में सफल हो जाते हैं, तो बाकी अपनी किस्मत को कोसते हुए अगले शैक्षणिक सत्र की प्रतीक्षा में रो-धोकर अपनी सारी मजबूरियों को सहते हुए चुपचाप अपने घर आकर बैठ जाते हैं। ‘तबादला उद्योग’ का ये तमाशा, केवल इस साल ही नहीं, हर साल और हर हालत मंे होता आ रहा है। चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो।
तबादलों के इस तमाशे ने तो अब लगभग एक सुनियोजित उद्योग की शक्ल अख्तियार ही कर ली है और यह उद्योग हर साल ही गुजरे साल से ज्यादा फलता-फूलता दिखाई देता है। इस तथ्य से हर शिक्षक, आम आदमी, राजनेता, अधिकारी व मीडिया सभी भली-भांति परिचित बने हुए हैं, लेकिन सब मौन है - आखिर क्यों? एक प्रजातांत्रिक देश/प्रदेश में आखिर हर कार्य किसी नियम, कायदे, कानून, नीति, परिपाटी या परम्परा से ही परिचालित एवं बाधित होता है - तो फिर शिक्षकों का तबादला ही इन बंधनों से मुक्त क्यों है? इसे ही केवल राजनेताओं की ‘डिजायर’ पर और उनके रहमों-करम पर ही क्यों छोड़ दिया गया है? यह ज्वलन्त सवाल हर बु(िजीवी व्यक्ति, संस्था, प्रशासन, मीडिया आदि सभी के लिए ‘विचारणीय सवाल’ नहीं है क्या? प्रदेश के प्रमुख कहे जाने वाले समाचार पत्र दैनिक भास्कर के दिनांक 28 अगस्त 2010 के अंक में इस ‘शिक्षक तबादला’ के संबंध में छपा यह समाचार- ‘अधिकारियों को 7 हजार शिक्षकों की सूची दे दी गई है जिसमें केवल डिजायर वाले लोगों के ही नाम है’, शिक्षकों के तबादला उद्योग की ही पुष्टि करता है। डिजायर नहीं तो तबादला नहीं, ऐसा क्यों? - यह एक याक्षिक प्रश्न है।
सारी उम्र प्रशासनिक कार्यालय में बिताने के पश्चात्, मैं अपने अनुभव के आधार पर पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि कुछ प्रदेशों में विशेषकर केन्द्र में रेलवे विभाग में तबादलों के लिए ठोस नीति-निर्देश बने हुए हैं, जिनका सार यह है - ;1द्ध हर कार्यालय में तबादले के लिए एक ‘नेम नोटिंग’ रजिस्टर रखा हुआ है जिसमें किसी भी इच्छुक कर्मचारी का तबादले का आवेदन आते ही उसका नाम नोट कर लिया जाता है और उसका दर्ज क्रमांक उस कर्मचारी को लिखित रूप में दे दिया जाता है। इस दर्ज क्रमांक का कोई भी अधिकारी, राजनेता उल्लंघन नहीं कर सकता। इच्छित रिक्त स्थान होने पर, बिना किसी डिजायर व सिफारिश के, उस आवेदित व दर्ज नाम कर्मचारी का स्थानान्तरण कर दिया जाता है। तो- फिर राजस्थान में ऐसा क्यांे नहीं हो सकता? ;2द्ध पारस्परिक तबादले ;डनजनंस म्गबींदहमद्ध में भी एक ही ग्रेड में कार्यरत दो कर्मचारियों की आपसी सहमति और उनका सेवा रिकॉर्ड ही मुख्य आधार होता है, इसमें भी कोई डिजायर या सिफारिश का आधार नहीं होता है। ;3द्ध पदौन्नति/पदावनति या कैडर में कमी होने पर भी तबादले किए जाते हैं। पर वो भी केवल वरिष्ठता के आधार पर, न कि किसी की डिजायर या सिफारिश पर। ;4द्ध जहां तक प्रशासनिक हित में तबादले करने का प्रश्न है तो उसके लिए कोई नियम/कायदा या डिजायर/सिफारिश नहीं होती, बल्कि प्रशासनिक हित ही सर्वोपरि होता है। लेकिन, इसका लिखिल कारण स्थानान्तरण करने वाले अधिकारी को उस कर्मचारी की फाइल पर अपने हस्ताक्षर सहित स्पष्ट रूप से लिखना होता है।
इसलिए, ऐसी ही कोई नीति या इससे मिलते-जुलते प्रादेशिक हित को ध्यान मंे रखते हुए पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता से नीति निर्धारित कर लागू की जा सकती है। ऐसा करना प्रशासन के हित में ही होगा। जबकि, केवल डिजायर व सिफारिश के आधार पर स्थानान्तरित हुआ कर्मचारी केवल अपने राजनीतिक आका के प्रति ही समर्पित होगा, प्रशासन व कानून के प्रति कदापि नहीं। सरकारें तो बदलती रहती है लेकिन कर्मचारी तो वही रहते हैं, इसलिए स्थानान्तरण में इस डिजायर व सिफारिश वाली ‘कु-नीति’ को बदलकर ‘सु-नीति’ का निर्धारिण करना ही श्रेयस्कर होगा। वर्ना, सरकारी ढांचा तो दिन-प्रतिदिन बिगड़ ही रहा है, जो आने वाले समय में ‘आत्मघाती’ ही साबित होगा - समूची व्यवस्था के लिये।
- गिरधारी लाल वर्मा -
- ‘वर्मा निवास’, पूनम कॉलोनी, कोटा जंक्शन - 2 (राज.)

फिर भी आसां नहीं,ईमान को हटा देना!

Dr. Amar Singh

‘‘पीछे बंधे हैं हाथ, मगर शर्त है सफ़र। किससे कहूं पांव के कांटें निकाल दे।।’’ चलना भी है और पांव में कांटें भी लग रहे हैं, पांव में कांटें लगे थे, फिर भी हाथ बंधे थे। पार्टी ने यह तो बहुत बाद मंे जाना कि जिन पांवों में लहू बह रहा है वे दिखने में तो गहलोत के हैं, मगर वास्तव में वे जनअनुभूतियांे के हैं। यह आदमी तो कांटांे पर भी चलने को राजी है, मगर खून तो हमारा बह रहा है। हमंे याद है कि डेढ़ साल पहले पिछले चुनाव में पार्टी ‘खून की कमी’ महसूस कर रही थी, तब गहलोत ने अपना खून चढ़ाकर पार्टी को जिता लिया। फिर इसमें भी देर नहीं की और कांटें निकालना व पांवों पर मरहम लगाना आरम्भ कर दिया। हां, तब बात अलग थी क्योंकि तब ‘सत्ता सुन्दरी’ दूर खड़ी मुस्करा रही थी, वरण और परण की कल्पना भी परवान नहीं चढ़ पा रही थी - सो न कांटें इतने अधिक थे और न ही इतने गहरे तक घुसे थे। मगर सत्ता पंख धारण के बाद इस बार तो कांटें नहीं भाले चुभे हैं और रक्त के परनाले से चल रहे हैं।
हमारे यहां राजनीति करने में पिटना एक अलग चाल, चरित्र और चेहरे वाली पार्टी की तो विशेष पहचान बन चुकी है। नेताआंे को जहां चाहो देखो। शतरंज खेलेंगे तो पैदल से पिटेंगे और ताश खेलेंगे तो जोकर ही बेगम को उड़ा ले जायेगा। सि(ांत तोड़कर सि(ांत पर अड़े रहेंगे और आसमान में उड़ेंगे मगर जमीन पर खड़े रहेेंगे। इस अदा पर लोग फिदा तो होते हैं मगर हंसने के लिये। जो बार-बार हंसी उड़वाता है, उसे कोई गंभीरता से नहीं लेता। इससे जुड़े नेताओं को बड़ी देर से मालूम हुआ कि लोग उन्हें गंभीर नहीं मान रहे, उनका वजन घट रहा है, छवि धूमिल हो रही हैऋ तो वे चिंतित हुए और नजर दौड़ाई तो पाया कि राजस्थान में भी कई नेता गुल खिला रहे हैं, गुलगुले खा रहे हैं और पार्टी की इज्जत को टप्पा खिला रहे हैं। समझ से परे हैं कि- प्रदेश के बौने कद्दावर नेता कुछ करते क्यों नहीं? वहां उन्हें कोई पूछता नहीं, इसलिए कि यहां कुण्डली मारकर बैठने वालों का विस्तार वहां की बाम्बी तक भी है। बस, बाहर से बीन बजाते रहो, लेकिन बाम्बी में हाथ डालने का हौसला लाये कहां से?
ऊहापोह की इस स्थिति में इनको मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, भ्रष्ट आचरण और कई हलकों के माफियाओं को, छाती पर रखे पत्थर की तरह लग रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पहले तो ‘सबै भूमि गोपाल की’’ की गोलमाल से चराई जारी थी। अब ‘गोपाल’ आ गया तो अवैध चराई पर बंदिश लग गई। ग्वाल-बाल गायें चराते तो ठीक था, लेकिन यहां तो कंस के वंशज हाथी चराने लगे थे तथा गायें और ग्वाले बाहर कर दिये गये थे। ऐसे में सभी सफेद हाथियों से रीझते रहे। मगर अब तो देश की भौगोलिक दृष्टि से इस सबसे बड़े राज्य की बागडोर एक ऐसे ‘गोपाल’ के हाथ में आ गई, जो केवल बांसुरी ही नहीं डमरू भी बजा देता है और नचा भी देता है। वह गोकुल के गरीब ग्वालों और गोपियों ;आमजनद्ध के साथ आत्मीयता का लास्य नृत्य कर सकता है तो मथुरा के मठाधीशों को तांडव भी दिखा भी सकता है।
जाहिर है कि जिनका ज़्ामीर बिका हुआ था और जो राज्य के जर-जमीन पर कालिया नाग की तरह फन फैलाये हुए थेऋ लेकिन जब गोपाल ने उन्हें नाथ दिया और जंजीरों की खनखनाहट सुना दी, तो नाग तो फुफकारेंगे ही और मौका मिला तो डसेंगे भी। इसलिए मौके की नजाकत देखकर शायद वे अभी अपने ‘विषकोष’ को तैयार कर रहे होंगे। वैसे काले धन वालों का धन ही विष होता है जिससे वे कई गौरों को भी नीला कर देते हैं। जाहिर है कि वे धनरूपी विष को तैयार रखेंगे, जो अभी फुफकारेंगे और मौका मिला तो डसेंगे। असर होगा या नहीं, यह तो भविष्य ही बतायेगा मगर ‘कालिया नाग’ अपनी कोशिश से बाज नहीं आयेगा - यह तय है। वैसे मुख्यमंत्री को यह सब पता भी है, जिसने ‘कालिया नाग’ द्वारा समय-समय पर किये गये ‘विष वमन’ को एक ही झटके में धो डाला। कोई स्थितिप्रज्ञ हो तो भी मौन की साधना टूट जाती है और विषधरों की पोल खोलनी पड़ती है। टुच्चे लांछनों की पोटली बनाकर और इकट्ठा किये गये काले धन का मुंह खोलकर उन्हें हटाने की पुरजोर कोशिश हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
कौव्वे कामना करते ही हैं कि कोई मरे और उन्हें आहार मिले। मगर कौव्वे के शाप से कोई मर रहा है या ओछी हरकतों से कोई जन निर्वाचित अपने पद से हटता है क्या? जनता की सेवा की लगन में मगन किसी ‘जननायक’ के पास क्या कोई फटक सकता है? ये जो धनपति, बाहुपति या भगवान से सीधे बात करने वाले होते हैं, वे राणा की तरह मीरा के लिए ‘विष का प्याला’ रखते ही है। लेकिन, लगन से मगन रहने वाली मीरायें ये विष प्याला पीकर फेंक देती हैं और विष असरहीन होकर रह जाता है। समुद्र मंथन होता है तो विष भी निकलता है जिसे कोई विष्णु नहीं, शिव अर्थात् कल्याण करने वाला ही पीता है और वहीं ‘नीलकंठ’ कहलाता है। आखिर- जो लोकहित में स्वयं के अहित की परवाह किये बिना ही, लोकहित का ध्यान करता है और लोकमंगल के लिये तप करता है, उस पर विष क्या असर करेगा? ‘जननायक’ को तो विष पीना ही पड़ेगा और अपने दम-खम से उसके प्रभाव को खत्म भी करना पड़ेगा।
आप जब माफियाओं और लपकों का मानमर्दन करेेंगे तो वे गर्दन झुकाकर थोड़े ही बैठेंगे? बंधे हैं तब तक सधे हैं और वे उनकी छाती पर पत्थर की तरह धरे हैं। छाती पर रखा पत्थर हटाने की कौन कोशिश नहीं करता? मगर ईमान के पत्थर को छाती से हटा देना आसान नहीं होता। इसीलिए कहा भी है- ‘‘माना पत्थर की तरह रखा है सीने पर वह / फिर भी आसां नहीं, ईमान को हटा देना।’’ मुख्यमंत्री गहलोत की कार्यशैली भी भारतीय मनीषा के महा उद्घोष ‘न दैन्यम् न पलायन’ से प्रेरित है और जिसने उपनिषद् के महामंत्र ‘चरैवेति-चरैवेति’ को अंगीकार किया है, इसीलिये वह कर्मरत और निर्भय है। कन्याओं के सौभाग्य के सहयोगी और जनति के मातृभाव को पूजित बनाने का पुण्य कर्म करने वाले, दरिद्र के दुख को हरने वाले, असहायों के सहाय वाले तथा जरासंध से दो-दो हाथ करने की कामना रखने वाला व्यक्ति ही ‘ड्डष्णमय’ होता है। समय और युगों की दृष्टि से केवल संदर्भ बदलते हैं, लेकिन व्यक्ति का कर्म-धर्म और ध्येय ड्डष्णमय हो तो गन्तव्य मिलता ही है।
बस, ड्डष्ण की भक्ति के साथ, ड्डष्ण की युक्ति को भी जानना होता है। कंस को बल से, तो जरासंध को बु(ि से जीता जाता है। ड्डष्ण को भीम भी चाहिए और जरासंध भी। संहार के लिए ही नहीं, पूर्णावतार होने के लिए भी। माना जाता है कि ईश्वर हर व्यक्ति को विशेष भूमिका देकर भेजता है।
अतः जिसे दरिद्र की तकदीर बदलने की तदबीर के लिए भेजा है, वह यदि ईमानदारी से अपना कर्म कर रहा है तो कुबेर के कुचक्र करके भी उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्योंकि चक्रधारी ड्डष्ण उसके पीछे खड़ा होता है। चक्र ही ‘सुदर्शन’ होता है, देखने में भी और व्यवहार में भी - यह हमें स्वीकार है, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के संदर्भ में भी।
- डॉ. अमरसिंह राठौड़,
निदेशक, सूचना एवं जनसम्पर्क, राजस्थान, जयपुर
साभारः दैनिक राष्ट्रदूत (2 सितम्बर 2010)