Friday, July 29, 2011

फिर भी आसां नहीं,ईमान को हटा देना!

Dr. Amar Singh

‘‘पीछे बंधे हैं हाथ, मगर शर्त है सफ़र। किससे कहूं पांव के कांटें निकाल दे।।’’ चलना भी है और पांव में कांटें भी लग रहे हैं, पांव में कांटें लगे थे, फिर भी हाथ बंधे थे। पार्टी ने यह तो बहुत बाद मंे जाना कि जिन पांवों में लहू बह रहा है वे दिखने में तो गहलोत के हैं, मगर वास्तव में वे जनअनुभूतियांे के हैं। यह आदमी तो कांटांे पर भी चलने को राजी है, मगर खून तो हमारा बह रहा है। हमंे याद है कि डेढ़ साल पहले पिछले चुनाव में पार्टी ‘खून की कमी’ महसूस कर रही थी, तब गहलोत ने अपना खून चढ़ाकर पार्टी को जिता लिया। फिर इसमें भी देर नहीं की और कांटें निकालना व पांवों पर मरहम लगाना आरम्भ कर दिया। हां, तब बात अलग थी क्योंकि तब ‘सत्ता सुन्दरी’ दूर खड़ी मुस्करा रही थी, वरण और परण की कल्पना भी परवान नहीं चढ़ पा रही थी - सो न कांटें इतने अधिक थे और न ही इतने गहरे तक घुसे थे। मगर सत्ता पंख धारण के बाद इस बार तो कांटें नहीं भाले चुभे हैं और रक्त के परनाले से चल रहे हैं।
हमारे यहां राजनीति करने में पिटना एक अलग चाल, चरित्र और चेहरे वाली पार्टी की तो विशेष पहचान बन चुकी है। नेताआंे को जहां चाहो देखो। शतरंज खेलेंगे तो पैदल से पिटेंगे और ताश खेलेंगे तो जोकर ही बेगम को उड़ा ले जायेगा। सि(ांत तोड़कर सि(ांत पर अड़े रहेंगे और आसमान में उड़ेंगे मगर जमीन पर खड़े रहेेंगे। इस अदा पर लोग फिदा तो होते हैं मगर हंसने के लिये। जो बार-बार हंसी उड़वाता है, उसे कोई गंभीरता से नहीं लेता। इससे जुड़े नेताओं को बड़ी देर से मालूम हुआ कि लोग उन्हें गंभीर नहीं मान रहे, उनका वजन घट रहा है, छवि धूमिल हो रही हैऋ तो वे चिंतित हुए और नजर दौड़ाई तो पाया कि राजस्थान में भी कई नेता गुल खिला रहे हैं, गुलगुले खा रहे हैं और पार्टी की इज्जत को टप्पा खिला रहे हैं। समझ से परे हैं कि- प्रदेश के बौने कद्दावर नेता कुछ करते क्यों नहीं? वहां उन्हें कोई पूछता नहीं, इसलिए कि यहां कुण्डली मारकर बैठने वालों का विस्तार वहां की बाम्बी तक भी है। बस, बाहर से बीन बजाते रहो, लेकिन बाम्बी में हाथ डालने का हौसला लाये कहां से?
ऊहापोह की इस स्थिति में इनको मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, भ्रष्ट आचरण और कई हलकों के माफियाओं को, छाती पर रखे पत्थर की तरह लग रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पहले तो ‘सबै भूमि गोपाल की’’ की गोलमाल से चराई जारी थी। अब ‘गोपाल’ आ गया तो अवैध चराई पर बंदिश लग गई। ग्वाल-बाल गायें चराते तो ठीक था, लेकिन यहां तो कंस के वंशज हाथी चराने लगे थे तथा गायें और ग्वाले बाहर कर दिये गये थे। ऐसे में सभी सफेद हाथियों से रीझते रहे। मगर अब तो देश की भौगोलिक दृष्टि से इस सबसे बड़े राज्य की बागडोर एक ऐसे ‘गोपाल’ के हाथ में आ गई, जो केवल बांसुरी ही नहीं डमरू भी बजा देता है और नचा भी देता है। वह गोकुल के गरीब ग्वालों और गोपियों ;आमजनद्ध के साथ आत्मीयता का लास्य नृत्य कर सकता है तो मथुरा के मठाधीशों को तांडव भी दिखा भी सकता है।
जाहिर है कि जिनका ज़्ामीर बिका हुआ था और जो राज्य के जर-जमीन पर कालिया नाग की तरह फन फैलाये हुए थेऋ लेकिन जब गोपाल ने उन्हें नाथ दिया और जंजीरों की खनखनाहट सुना दी, तो नाग तो फुफकारेंगे ही और मौका मिला तो डसेंगे भी। इसलिए मौके की नजाकत देखकर शायद वे अभी अपने ‘विषकोष’ को तैयार कर रहे होंगे। वैसे काले धन वालों का धन ही विष होता है जिससे वे कई गौरों को भी नीला कर देते हैं। जाहिर है कि वे धनरूपी विष को तैयार रखेंगे, जो अभी फुफकारेंगे और मौका मिला तो डसेंगे। असर होगा या नहीं, यह तो भविष्य ही बतायेगा मगर ‘कालिया नाग’ अपनी कोशिश से बाज नहीं आयेगा - यह तय है। वैसे मुख्यमंत्री को यह सब पता भी है, जिसने ‘कालिया नाग’ द्वारा समय-समय पर किये गये ‘विष वमन’ को एक ही झटके में धो डाला। कोई स्थितिप्रज्ञ हो तो भी मौन की साधना टूट जाती है और विषधरों की पोल खोलनी पड़ती है। टुच्चे लांछनों की पोटली बनाकर और इकट्ठा किये गये काले धन का मुंह खोलकर उन्हें हटाने की पुरजोर कोशिश हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
कौव्वे कामना करते ही हैं कि कोई मरे और उन्हें आहार मिले। मगर कौव्वे के शाप से कोई मर रहा है या ओछी हरकतों से कोई जन निर्वाचित अपने पद से हटता है क्या? जनता की सेवा की लगन में मगन किसी ‘जननायक’ के पास क्या कोई फटक सकता है? ये जो धनपति, बाहुपति या भगवान से सीधे बात करने वाले होते हैं, वे राणा की तरह मीरा के लिए ‘विष का प्याला’ रखते ही है। लेकिन, लगन से मगन रहने वाली मीरायें ये विष प्याला पीकर फेंक देती हैं और विष असरहीन होकर रह जाता है। समुद्र मंथन होता है तो विष भी निकलता है जिसे कोई विष्णु नहीं, शिव अर्थात् कल्याण करने वाला ही पीता है और वहीं ‘नीलकंठ’ कहलाता है। आखिर- जो लोकहित में स्वयं के अहित की परवाह किये बिना ही, लोकहित का ध्यान करता है और लोकमंगल के लिये तप करता है, उस पर विष क्या असर करेगा? ‘जननायक’ को तो विष पीना ही पड़ेगा और अपने दम-खम से उसके प्रभाव को खत्म भी करना पड़ेगा।
आप जब माफियाओं और लपकों का मानमर्दन करेेंगे तो वे गर्दन झुकाकर थोड़े ही बैठेंगे? बंधे हैं तब तक सधे हैं और वे उनकी छाती पर पत्थर की तरह धरे हैं। छाती पर रखा पत्थर हटाने की कौन कोशिश नहीं करता? मगर ईमान के पत्थर को छाती से हटा देना आसान नहीं होता। इसीलिए कहा भी है- ‘‘माना पत्थर की तरह रखा है सीने पर वह / फिर भी आसां नहीं, ईमान को हटा देना।’’ मुख्यमंत्री गहलोत की कार्यशैली भी भारतीय मनीषा के महा उद्घोष ‘न दैन्यम् न पलायन’ से प्रेरित है और जिसने उपनिषद् के महामंत्र ‘चरैवेति-चरैवेति’ को अंगीकार किया है, इसीलिये वह कर्मरत और निर्भय है। कन्याओं के सौभाग्य के सहयोगी और जनति के मातृभाव को पूजित बनाने का पुण्य कर्म करने वाले, दरिद्र के दुख को हरने वाले, असहायों के सहाय वाले तथा जरासंध से दो-दो हाथ करने की कामना रखने वाला व्यक्ति ही ‘ड्डष्णमय’ होता है। समय और युगों की दृष्टि से केवल संदर्भ बदलते हैं, लेकिन व्यक्ति का कर्म-धर्म और ध्येय ड्डष्णमय हो तो गन्तव्य मिलता ही है।
बस, ड्डष्ण की भक्ति के साथ, ड्डष्ण की युक्ति को भी जानना होता है। कंस को बल से, तो जरासंध को बु(ि से जीता जाता है। ड्डष्ण को भीम भी चाहिए और जरासंध भी। संहार के लिए ही नहीं, पूर्णावतार होने के लिए भी। माना जाता है कि ईश्वर हर व्यक्ति को विशेष भूमिका देकर भेजता है।
अतः जिसे दरिद्र की तकदीर बदलने की तदबीर के लिए भेजा है, वह यदि ईमानदारी से अपना कर्म कर रहा है तो कुबेर के कुचक्र करके भी उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्योंकि चक्रधारी ड्डष्ण उसके पीछे खड़ा होता है। चक्र ही ‘सुदर्शन’ होता है, देखने में भी और व्यवहार में भी - यह हमें स्वीकार है, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के संदर्भ में भी।
- डॉ. अमरसिंह राठौड़,
निदेशक, सूचना एवं जनसम्पर्क, राजस्थान, जयपुर
साभारः दैनिक राष्ट्रदूत (2 सितम्बर 2010)

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