Thursday, October 28, 2010

लेखकों के विरोध की सार्थकता पर उठता सवालिया निशान ?

महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय के महिला लेखिकाओं के बारे में दिये गये आपत्तिजनक बयान और उसे ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रमुखता के साथ छापने पर संपादक रवीन्द्र कालिया को लेकर उठे विवाद का अब प्रायः अंत हो गया है। आश्चर्य है कि हिन्दी के सैकड़ों छोटे-बड़े लेखकों द्वारा इन दोनों के विरूद्ध कटु आक्रोश प्रकट करने के बावजूद यह प्रतिरोधात्मक अभियान बिना किसी निर्णायक अथवा इच्छित परिणाम तक पहुंचे ही समाप्त हो गया। पर, अपने पीछे यह जो सवाल छोड़ गया है उस पर गंभीरतापूर्वक अब यह विचार करने की जरूरत है, आखिर- इस लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में सत्ता प्रतिष्ठानांे के प्रमुख पदों पर बैठे महानुभावों के गलत आचरणों को रोकने और उन्हें दंडित कराने के लिये कौन-से उपाय किये जायें कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर भरोसा कायम रह सकें? जाहिर है शांतिपूर्वक सामूहिक विरोध प्रदर्शन का अब सरकारों पर कोई असर होता दिखाई नहीं दे रहा है और हिंसात्मक रूख अपनाने या रास्ता जाम कर देने जैसे उपाय अपनाना लेखकों को अपनी स्वयं धारित प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं लगता। 
वैसे लेखकों को यह कटु अनुभव पहली बार ही हुआ है। इससे पहले दिल्ली की हिन्दी अकादमी में अशोक चक्रधर की ताजपोशी करने को लेकर और बाद में वरिष्ठ साहित्यकार ड्डष्ण बलदेव वैद को शलाका सम्मान से वंचित करने पर भी ऐसा ही विरोध प्रदर्शन हुआ था। उससे पहले केन्द्रीय साहित्य अकादमी में गोपीचंद नारंग के आने पर और बंगला साहित्य की लोकप्रिय लेखिका तसलीमा नसरीन के पश्चिमी बंगाल से दर-बदर किये जाने पर भी ऐसा ही हंगामा हुआ था। राजस्थान में तो पिछली भाजपा सरकार ने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद पर एक ऐसी महिला को ला बैठाया था जो आयुर्वेद में डिग्री प्राप्त थी और अपने विषय में पुस्तकें लिखने के कारण लेखिका मान ली गई थी। उनका भी जमकर विरोध हुआ था, पर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी। उम्मीद थी कि सरकार बदलने पर कोई उपयुक्त व्यक्ति इस पद पर बैठेगा लेकिन वर्तमान कांग्रेस सरकार अपना लगभग आधा कार्यकाल पूरा करने को है फिर भी राज्य की सभी अकादमियों के अध्यक्षों की कुर्सियां खाली पड़ी है। उसे शायद यह लग रहा है कि सचिव और संभागीय आयुक्त अर्थात् सरकारी कर्मचारी ही जब अकादमियों का काम चला रहे हैं तो फिर अध्यक्षों की नियुक्ति कर क्यों आलोचनाओं को न्यौता दिया जाये!
निश्चय ही यह स्थिति चिन्ताजनक है और लेखकों को अपनी हैसियत, अपने लेखन की उपयोगिता और अपने सरोकारों की विश्वसनीयता पर पनुर्विचार करने के लिये बाध्य करती है। दरबारी या राज्याश्रयी लेखन को यदि अपवाद मान लें तो हम पाते हैं कि हर युग में इसके तेवर सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति तीखे-आलोचनात्मक रहे हैं। सत्ता चाहे नरेशों, महानरेशों की रही हो या लोकतांत्रिक शासन में तानाशाही स्वेच्छाचारी सरकारों की रही हो, लेखकों ने उनके कार्य व्यवहार को आम लोगों की भलाई के कांटों पर ही तोला है और तोल में कमी पाने पर उनकी निन्दा करने से वे कभी चूके नहीं हैं। इतना ही नहीं उन्होंने उन धार्मिक कर्मकांड़ों और सामाजिक रीति-रिवाजों पर भी जमकर प्रहार किये हैं जो लोगों की भलाई के रास्तों में अड़चन डालते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द जब साहित्य को ऐसी मशाल बताते हैं जो लोगों को सही राह दिखाती है तो अनिवार्यतः लेखकों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे भी बहुसंख्यक लोगों के न्याय पाने के लिये किये जाने वाले संघर्ष के पक्ष में हाथ उठाते दिखाई दें। विचारधारा चाहे कोई भी हो या न हो, लेखकीय संवेदना इस स्वतः निर्धारित भूमिका से कभी अलग नहीं होती।
लेकिन आज हालत यह है कि करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक चंद लोग संसद और विधानसभाओं में न केवल पहुंचने लगे हैं बल्कि उन्होंने जन-प्रतिनिधि की हैसियत से अपने आपको दीन-हीन लोगों का सबसे बड़ा हित-चिंतक भी घोषित कर दिया है। साफ जाहिर है कि चंद पूंजीपतियों ने लोकतंत्र को ‘हाईजैक’ कर लिया है। उनके लिये सत्ता में बने रहना ही सबसे बड़ी प्राथमिकता है, इसलिये वे हर उस व्यक्ति को लाभ पहुंचाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें सत्ता में बने रहने में सहायक हो सकता है। उनके लिये बड़ा से बड़ा लेखक भी उस कार्यकर्ता से छोटा है जो उनके हर अच्छे-बुरे काम में आंख-कान मंूदकर उनके पक्ष में खड़ा होता है। वे जानते हैं कि लेखकों की आलोचना से उनके वोट बैंक पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। तभी तो एक-दो विधायकों की आपत्ति पर कृष्ण बलदेव वैद को सम्मान से वंचित कर दिया जाता है। बांग्ला देश से आये मुसलमानों के नाराज होने के डर से तस्लीमा को पश्चिम बंगाल से निकाल दिया जाता है और आधिकारिक विद्वानों की जगह गृह मंत्रालय के अधिकारी यह तय करने लगते हैं कि- कौन सी पुस्तक लोगों की आस्था पर चोट करने वाली है! लेखकों की आलोचना को निष्प्रभावी बनाने के लिये वे अपनी पार्टी की आलोचना स्वयं ही करवा लेते हैं। फिर विपक्ष और मुख्यधारा का मीडिया तो यह काम करता ही रहता है। ऐसे में उनकी सत्ता प्रतिरोधी भूमिका स्पष्टतः अपना अपेक्षित असर नहीं छोड़ पाती।
सच यह है कि लेखक जो कुछ लिखता है वह जब पाठक तक पहुंचता है तो उसे भावविह्नल किये बिना नहीं रहता। हर लेखक अपना एक पाठक-प्रशंसक समूह बनाता है। वह छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। उसमें अभिजात और अनभिजात दोनों तरह के लोग शामिल रह सकते हैं। क्या यह संभव नहीं है कि- वह अपने पाठक समूह से रचना के माध्यम से मिलने के अतिरिक्त समय-समय पर व्यक्तिगत संपर्क भी कायम करना शुरू करे? और, वह जिन सभाओं, सम्मेलनों, गोष्ठियों, सेमिनारों में जाये इस शर्त के साथ जाये कि उनमें उसके पाठक भी शामिल हों? उदाहरण के लिये मैं एक ऐसे लेखक को जानता हूं जिन्हें आमंत्रित करने पर उनकी यह शर्त सामने आई कि उस सभा में कम से कम दस प्रतिशत ऐसे लोग भी शामिल होंगे जिन्होंने उनकी एक-दो पुस्तकें पढ़ी होंगी। ऐसी कुछ पत्र/पत्रिकाओं के उदाहरण भी मेरे सामने रहे हैं जिनमें संपादक, लेखक और पाठक आमने-सामने रहकर एक-दूसरे से जिरह करते हैं।
इसी तरह एक अखिल भारतीय साक्षरता एवं सतत शिक्षा समारोह में मुझे तमिलनाडू और केरल के कुछ ऐसे साहित्यकार भी मिले जो अपनी किताबें लेकर गांवों और कस्बों में नियमित जाते हैं और आम लोगों के बीच उनका पाठ करते हैं, अपने अनुभव उनके साथ शेयर करते हैं और उनके विचारों से स्वयं को लाभान्वित करते हैं। इस तरह के अभियानों के कई फायदे हो सकते हैं, जैसे- लेखक अपने लेखन की कमियों, अनुभवों की प्रामाणिकता और विचारों की प्रासंगिकता का आकलन कर सकता है। वह अपनी अगली रचना के लिये कच्चा माल प्राप्त कर सकता है। उसके सामने वह अनजाना, अनदेखा पाठक नहीं रहता जिसकी पृष्ठभूमि व मानसिकता की वह कल्पना कर लेता है या सैकिण्ड हैन्ड जानकारी के बलबूते पर उसकी छवि गढ़ लेता है। जाने-पहचाने पाठक समूह के लिये लिखने को जब वह प्रवृत्त होगा तो उसके सामने न केवल पाठकों की इच्छा अनिच्छायें बल्कि उनकी समस्यायें भी स्पष्ट रहेंगी और वह उन्हें उनकी स्तरानुरूप भाषा में अपनी बात कह सकेगा। पाठकांे में भी अपनी पैठ गहरी कर लेखक न केवल उन्हें अपना प्रशंसक ही बना लेगा बल्कि उन्हें अपने आंदोलनों में भागीदार बनने के लिये कह भी सकेगा। 
अन्यथा उसका यह कहना कि विभूति नारायण राय का बयान न केवल लेखिकाओं को बल्कि सारी नारी जाति को अपमानित करने वाला है - कोई मायने नहीं रखता। क्योेंकि यदि वह सही होता तो उसके विरोध में इन विरोध करने वाले लेखक व लेखिकाओं के साथ कम से कम कुछ पढ़ी लिखी आम औरतें या जन प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली सारी महिला सांसद तो खड़ी होती?

- सुरेश पंडित

383, स्कीम नं. 2,
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मो. : 92149-45156 एवं 80587-25639

उदयपुर में साम्प्रदायिक दंगे: राजस्थान पुलिस ने गुजरात दोहराया !

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की राजस्थान के उदयपुर जिले के सारड़ा नामक कस्बे में हुई साम्प्रदायिक हिंसा की जांच रपट मेरे सामने है। यह हिंसा एक मीणा आदिवासी की हत्या के बाद भड़की। यह हत्या शुद्धतः आपराधिक थी। पीयूसीएल के दल में वरिष्ठ अधिवक्ता रमेश नंदवाना सहित विनीता श्रीवास्वत, अरूण व्यास, श्यामलाल डोगरा, श्रीराम आर्य, हेमलता, राजेश सिंह व रशीद शामिल थे। इस कस्बे में कुछ वर्ष पहले भी साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। इस रपट के अनुसार, 2 जुलाई 2010 को शहजाद खान और उसके दो साथियों ने मोहन मीणा का कत्ल कर दिया। मोहन मीणा अवैध शराब का ध्ंाधा करता था और शराब पीने के बाद हुए झगड़े में उसका खून हो गया। इसके बाद, तीन दिनों तक (3 से 5 जुलाई) आदिवासियों ने योजनाब( तरीके से मुसलमानों की दुकानों में जमकर आगजनी की। जिन मुसलमानों की दुकानें जलाई गईं उनका हत्या से कोई लेना-देना नहीं था। फिर, 8 जुलाई को निकटवर्ती बोरीपाल के भाजपा नेता अमृतलाल मीणा और उनके साथियों ने घोषणा की कि मुस्लिम परिवारों का नाश करना उनका ‘प्राथमिक लक्ष्य’ है।
क्षेत्र के एसडीएम एवं पुलिस उप अधीक्षक ने दोनों पक्षों की बैठक बुलाई और समस्या का हल निकालने की पेशकश की। बैठक में आदिवासयिों के प्रतिनिधियों, जो सभी बजरंग दल के सदस्य थे, ने कहा कि वे मुस्लिम परिवारों का नाश करने का अपना इरादा तभी त्यागेंगे जब स्थानीय मुसलमान यह घोषणा करें कि वे मोहनलाल मीणा की हत्या में शामिल तीनों आरोपियों का पूर्णतः बहिष्कार करेंगे और इस आशय की सूचना अखबारों में छपवाई जाएगी। यद्यपि इस मांग की कोई कानूनी वैधता नहीं थी और आरोपियों पर कानून के अनुसार मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। परंतु शांति बनाए रखने की खातिर, स्थानीय मुसलमानों ने इस मांग को स्वीकार भी कर लिया और तीनों आरोपियों को बिरादरी बाहर करने की घोषणा भी कर दी गई। इस बारे में सारड़ा के तहसीलदार को आधिकारिक रूप से सूचित भी किया गया और उदयपुर से प्रकाशित ‘दैनिक भास्कर’ मंे यह खबर भी छपवाई गई। पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार- लेकिन,  हिन्दुत्ववादी संगठनों के बहकावे में आकर आदिवासियों ने अपना वायदा नहीं निभाया और 18 जुलाई को कस्बे में बड़े पैमाने पर ऐसे पर्चे बांटे गए जिनमें कहा गया था कि आदिवासी ‘मुस्लिम परिवारों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेंगे।’ 
पीयूसीएल ने ऐसे सुबूत इकट्ठे किए हैं जिनसे यह जाहिर होता है कि 18 से 24 जुलाई के बीच, विभिन्न संगठनों द्वारा क्षेत्र के आदिवासियों को हथियार बांटे गए। रपट के अनुसार पाल सारड़ा, पालसाईपुर सहित कई अन्य गांवों में सेवानिवृत्त शिक्षक धनराज मीणा और पंचायत के उप सचिव कालूशंकर मीणा ने हथियार बांटे। सारड़ा के मुसलमानों को जब इस घटनाक्रम का पता लगा तो उन्होंने उच्चाधिकारियों और स्थानीय नेताओं को इसकी सूचना दी और उनसे अनुरोध किया कि कस्बे में सुरक्षा के कड़े इंतजामात किए जाएं। वैसे भी, जिला प्रशासन और पुलिस को हथियार व पर्चे बांटे जाने की जानकारी रही होगी। इसके बाद 25 जुलाई को अपरान्ह लगभग चार बजे बड़ी संख्या में आदिवासी एक होस्टल के नजदीक इकट्ठा हुए और भीड़ के रूप में  मुसलमानों की दुकानों और मकानों पर हमले करने लगे। इनमंे से एक मकान सेवानिवृत्त प्राचार्य अहमद हुसैन का था, जिन्हें पत्थरबाजी में गंभीर चोटें भी आईं। ऐसी अफवाह फैलाई गई कि एक मुस्लिम ने आदिवासियों पर गोली चलाई है परंतु बाद में पुलिस ने इस अफवाह को सही नहीं पाया।
यद्यपि आदिवासी ढोल-ढमाके बजाते हुए इकट्ठा होकर अपने साथियों को मुसलमानों पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे परंतु प्रशासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। आदिवासी, मुस्लिम मोहल्लों पर हमले करते रहे। मुसलमानों की ‘सुरक्षा’ के लिए पुलिस उन्हें थाने ले आई। मौका पाकर आदिवासियों ने खाली घरों को जमकर लूटा और उनमें आग लगा दी। ऐसे घरों की संख्या लगभग 70 बताई जाती है। इस घटनाक्रम का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि जिला प्रशासन ने इस हिंसा को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। जिस समय मुसलमानों के घर जलाए जा रहे थे उस समय सारड़ा में जिला मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक व अन्य अधिकारी मौजूद थे। लेकिन जिले के ये शीर्ष अधिकारी भी आदिवासियों की भीड़ द्वारा मुसलमानों के घरों को लूटे और जलाए जाने के मूकदर्शक बने रहे। इससे भी अधिक चाैंकाने वाली बात यह है कि इन अधिकारियों के खिलाफ आज तक राज्य के मुख्यमंत्री या गृहमंत्री द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई है। मेरे निवेदन पर मुसलमानों का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल, प्रोफेसर मोहम्मद हसन व प्रोफेसर सलीम इंजीनियर के नेतृत्व मंे दो दंगा पीड़ितों के साथ मुख्यमंत्री से मिला और उनसे अनुरोध किया कि वे जिले के उन उच्चाधिकारियों को निलंबित करें जिनकी आंखों के सामने मुसलमानों के 70 घर लूटे और जलाए गए। मुख्यमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल से कहा कि वे संभागायुक्त से मामले की जांच करवांएगे। 
राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है। मुसलमानों ने पिछले चुनाव में कांग्रेस को अपना पूरा समर्थन दिया था क्योंकि उन्होंने राज्य में भाजपा शासन के दौरान हुए भगवाकरण को देखा और भुगता था। गुजरात के दंगों के प्रकाश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार, साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक तैयार कर रही है ताकि भविष्य में गुजरात जैसी घटनाएं न हों। सबसे दुःख की बात यह है कि जब मुसलमानों के घर जलाए और लूटे जा रहे थे तब वहां जिले के अधिकारियों के अतिरिक्त एक कांग्रेस विधायक भी मौजूद थे। ये विधायक भी मीणा आदिवासी हैं। क्या कांग्रेस सरकार वाकई साम्प्रदायिक हिंसा पर रोक लगाने की इच्छुक है? उदयपुर के जिलाधिकारियों ने जिस तरह का व्यवहार किया, उससे कई प्रश्न उभरते हैं। क्या मुख्यमंत्री को इस गंभीर घटना की जानकारी नहीं थी? अगर नहीं, तो संबंधित अधिकारियों ने उन्हें अंधेरे में क्यों रखा और यदि हां, तो मुख्यमंत्री ने दोषी अधिकारियों के विरूद्ध त्वरित और कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं की? यद्यपि यह घटना एक छोटे से कस्बे में हुई थी, लेकिन इससे उसकी गंभीरता कम नहीं हो जाती। कहा जाता है कि गुजरात में पुलिस ने दंगाईयों का साथ दिया था। तो क्या कांग्रेेस-शासित राजस्थान की पुलिस का व्यवहार, गुजरात से कुछ अलग था? 
यह तर्क दिया जा सकता है कि गुजरात में जो कुछ हुआ उसे सरकार का अपरोक्ष समर्थन हासिल था। लेकिन राजस्थान के मामले में शायद ऐसा नहीं रहा होगा। परंतु, क्या हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि मुख्यमंत्री को अधिक सतर्क रहना था और साम्प्रदायिक सोच वाले अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी थी? मैं जोर देकर यह बात कहना चाहता हूं कि जब तक सरकार नहीं चाहेगी तब तक किसी राज्य में कभी कोई दंगा या बड़ी साम्प्रदायिक घटना नहीं हो सकती। बिहार और पश्चिम बंगाल इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। मुस्लिम और यादव वोटों के सहारे सत्ता में आने के बाद, लालू यादव ने एक बहुत आसान से तरीके से राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पा लिया था। उन्होंने यह साफ कर दिया कि अगर चौबीस घंटे के भीतर साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को तुरंत निलंबित कर दिया जावेगा। उन्होंने यादवों को भी चेतावनी दी कि अगर वे सत्ता का मजा लूटते रहना चाहते हैं तो साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने या उसमें भाग लेने से बाज आएं। 
लालू यादव के 15 वर्षीय शासनकाल में बिहार में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। चूंकि नीतीश कुमार, मुसलमानों को लालू शिविर से अपने शिविर में लाना चाहते हैं इसलिए उन्होंने भी अब तक बिहार को दंगामुक्त राज्य बना रखा है। यही नहीं, मुसलमानांे को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नीतीश कुमार ने यह सुनिश्चित किया कि भागलपुर दंगों के दोषियों को सजा मिले। लालू ने इस काम में कोई रूचि इसलिए नहीं ली थी क्योंकि अधिकांश आरोपी यादव थे। इसी तरह, एक समय पश्चिम बंगाल, साम्प्रदायिक हिंसा का बड़ा केन्द्र था परंतु वाममोर्चा सरकार ने सत्ता में आते ही एक सर्कुलर जारी किया कि जो पुलिस अधिकारी 24 घंटे के भीतर साम्प्रदायिक हिंसा रोकने में विफल रहते हैं उन्हें स्वयं को निलंबित समझना चाहिए। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा तीस वर्ष से भी अधिक समय से शासन कर रहा है परंतु इस अवधि में राज्य में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। इसका एकमात्र अपवाद था मुर्शिदाबाद में हुई साम्प्रदायिक हिंसा, जिसपर बहुत जल्दी नियंत्रण पा लिया गया था।
अतः यह साफ है कि साम्प्रदायिक दंगों के मामले में सरकार की इच्छाशक्ति का बहुत महत्व होता है। यह खेदजनक है कि उदयपुर जिले के उन दोषी अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई है जिनकी उपस्थिति में मुसलमानों के घर लूटे और जलाए गए। राजस्थान में दस वर्ष तक भाजपा का शासन रहा और इस दौरान नौकरशाही और पुलिस का जम कर साम्प्रदायिकीकरण कर दिया गया। भाजपा शासन में संघ की पृष्ठभूमि और मानसिकता वाले राज्य पुलिस व प्रशासनिक सेवाओं के अनेक अधिकारियों को आईएएस व आईपीएस में पदोन्नत किया गया। इससे राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई व आरएसएस, विहिप, बजरंग दल आदि जैसे संगठनों की ताकत में जबरदस्त वृद्धि हुई। जैसा कि हम जानते हैं पिछले कुछ दशकों से आरएसएस आदिवासी क्षेत्रों में बहुत सक्रियता से काम कर रहा है। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मुसलमानों के घरों में लूटपाट और आगजनी करने वाले आदिवासी, हिन्दुत्व संगठनों के सदस्य ही थे। 
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की छवि एक धर्मनिरपेक्ष नेता की है और वे निश्चित रूप से इन सभी तथ्यों से  अवगत होंगे। इसलिए उन्हें जिला स्तर के अधिकारियों को स्पष्ट शब्दों में यह संदेश दे देना चाहिए कि अफसरशाही या पुलिस में साम्प्रदायिकता को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण राजस्थान में भाजपा के कई वर्षों के कुशासन के बाद कांग्रेस सत्ता में आई है और उसे राज्य प्रशासन को साम्प्रदायिक तत्वों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए तत्परता से कदम उठाने चाहिए। खेद का विषय है कि यह तत्परता कहीं दिखाई नहीं दे रही है। मुझे बताया गया है कि जयपुर के मुसलमानों ने यह निर्णय लिया है कि सारड़ा तहसील में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के दोषी अधिकारियों के खिलाफ यदि कड़ी कार्यवाही नहीं की गई तो वे मुख्यमंत्री द्वारा आयोजित किए जाने वाले रोजा अफ्तार का बहिष्कार करेंगे। बल्कि उन्होंने तो किसी भी कांग्रेस नेता के रोजा अफ्तार में शामिल न होने का भी निर्णय लिया है। यह बिल्कुल सही निर्णय है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों को साम्प्रदायिक सद्भाव व शांति बनाए रखने में अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और सरकार को इस बात के लिए मजबूर करना चाहिए कि वह दोषी अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही करे। 
मुख्यमंत्री को यह सुनिश्चित करना होगा कि कम से कम साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील जिलों से साम्प्रदायिक मानसिकता वाले अधिकारियों को हटाया जाए और उनके स्थान पर धर्मनिरपेक्ष व उदार सोच वाले ऐसे अधिकारियों की पदस्थापना की जाए जो साम्प्रदायिक सद्भाव और शांति को बढ़ावा दें। अगर उदयपुर के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को तुरंत निलंबित कर दिया जाता है तो नौकरशाही तक सही संदेश जाएगा। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो फिरकापरस्त नौकरशाहों की हिम्मत बढेगी और राजस्थान को दूसरा गुजरात बनने में देर नहीं लगेगी। आखिर, भाजपा तो यही चाहती है और इसीलिये उसने अपने दस वर्ष के शासन में साम्प्रदायिकता का मूलभूत ढांचा भी खड़ा कर दिया है। किन्तु, अभी भी देर नहीं हुई है। अगर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री गहलोत अपनी छवि को बेदाग बनाए रखना चाहते हैं और कांग्रेस को एक धर्मनिरपेक्ष दल के रूप मंे प्रस्तुत करना चाहते हैं तो उन्हें चुप नहीं बैठना चाहिए। मैं चालीस साल से साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम कर रहा हूं और मेरा यह अनुभव है कि धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस की सैंद्धांतिक प्रतिबद्धता है। परंतु वह अक्सर कार्यरूप में परिणित नहीं होती। जबकि, इसके विपरीत जनता दल, आरजेडी व अन्य मंडल पार्टियां, साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलती भी हैं और उससे लड़ती भी हैं। 
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)
- डॉ. असगर अली इंजिनियर
- सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज़्म, 
सिल्वर स्टार बिल्डिंग, फ्लैट नं. 602-603, छठां फ्लोर, 
सांताक्रुज (ईस्ट) रेलवे स्टेशन के पास, बेस्ट डिपो के पीछे, 
सांताक्रुज (ईस्ट), मुम्बई - 400 055

मालवीय नगर विधानसभा क्षेत्र के युकां अध्यक्ष निर्वाचित हुए ‘‘विचार व्यास’’

जयपुर। कांग्रेस संगठन की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले युवक कांग्रेस के देश भर में चल रहे चुनाव के दौर में जयपुर के मालवीय नगर विधानसभा क्षेत्र के अध्यक्ष पद पर विचार व्यास निर्वाचित घोषित हुए। विचार व्यास के इस निर्वाचन पर क्षेत्रवासियों विशेषकर युवाओं ने प्रसन्नता व्यक्त कर इनको बधाईयां दी और इनकी उत्तरोत्तर सफलतम प्रगति की कामनायें की। अपनी जीत को क्षेत्रवासियों की जीत बताते हुए विचार व्यास ने कहा कि देश में कोई भी चीज सही समय पर नहीं होती। जिसकी वजह से हर आमजन को परेशानी उठानी पड़ती है। विचार व्यास ने राजनैतिक कार्यक्षेत्र में निम्न स्तर की होने वाली राजनीति को बंद किये जाने की बात करते हुए कहा कि देश को ‘यंग लीडरशिप’ की जरूरत है। हालांकि अभी राजनीति में बहुत से यंग लीडर है लेकिन देश से वंशवाद और भ्रष्ट सिस्टम को खत्म करने के साफ सोच व छवि वाले यंग लीडरर्स की जरूरत है। 
विचार व्यास ने अपने राजनैतिक जीवन के बारे में बताते हुए कहा कि उन्होंने जीवन में काफी समस्याओं का सामना किया है जो आमजन की समस्याओं के ही समान रही है लेकिन वे लगातार संघर्षरत रहकर समस्याओं के निराकरण में जुटे रहे। यही कारण है कि इस चुनाव में मतदाताओं ने विश्वास कर मुझे सफलता दिलाई। अब उनका पूरा ध्यान राजनीति पर ही है। उन्होंने बताया कि आज लोगों के बीच में राजनेताओं के प्रति नकारात्मक सोच बनी हुई है कि वो सिर्फ वोट लेने के लिए ही जनता से वादे करते है, वो इस सोच को बदलना चाहते हैं। युवक कांग्रेस को नवजीवन के साथ नई दिशा देने वाले युवा नेता राहुल गांधी से प्रभावित विचार व्यास का कहना है कि राहुल गांधी ने जिस तरह से राजनीति में आकर अपने परिवार की परम्परा को सार्थकता प्रदान की है उससे ना केवल युवा वर्ग में बल्कि वरिष्ठ आमजन में भी कांग्रेस के प्रति विश्वास का भाव बनता जा रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अपना आदर्श मानने विचार व्यास कहते हैं कि वह कम बोलने और अधिक काम करने में विश्वास करते हैं और यही उनकी सफलता का मूलमंत्र है।

‘हिन्दी भाषा भूषण’ से सम्मानित हुए ललित शर्मा

झालावाड़। श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा साहित्य मंडल (जिला चित्तौड़गढ़) की ओर से हिन्दी दिवस पर आयोजित समारोह में झालावाड़ के इतिहासविद् ललित शर्मा को हिन्दी सेवा सम्मान व हिन्दी भाषा भूषण की उपाधि से अलंकृत कर सम्मानित किया गया। ललित शर्मा के हिन्दी भाषा में विशिष्ट स्तरीय लेखन व पुस्तक प्रकाशन के लिए मंडल की ओर से उनको यह सम्मान प्रदान किया।
इस सम्मान समारोह के लिए मंडल द्वारा आमंत्रित किये गये देश के 12 राज्यों के 27 साहित्यकारों, इतिहासविद्वों में राजस्थान राज्य के आमंत्रित चार साहित्यकारों में एक झालावाड़ के श्री ललित शर्मा शामिल है। मंडल के सभागार में आयोजित हुए इस गरिमामयी समारोह में प्रमुख अतिथिगण श्रीनाथजी मंदिर के बड़े मुखिया पंडित नरहरि ठाकर, साहित्य मंडल के प्रधानमंत्री भगवती प्रसाद देवपुरा, मंदिर मंडल के निष्पादन अधिकारी अजय कुमार एवं नाथद्वारा के उप जिला कलेक्टर गौरव बजाज ने श्री ललित शर्मा को श्रीनाथजी मंदिर का परम्परागत ओपरना, शॉल ओढ़ाकर एवं विश्वप्रभु श्रीनाथजी की हस्तनिर्मित स्वर्णिम श्रृंगार छवि व अधिकृत सम्मान उपाधि पत्र भेंट कर सम्मानित किया। 
इस प्राप्त हुए गरिमामयी सम्मान के लिए झालावाड़ अंचल के साहित्यकारों, इतिहासविद्वों व शुभेच्छुओं आदि ने खुशी जाहिर कर श्री शर्मा को बधाईयां दी और उनके उज्जवलमयी भविष्य की कामना की। ज्ञातव्य है कि ललित शर्मा इन दिनों दलित समाज के गौरवमयी महान् संतों पर भी शोधकार्य लेखन कर रहे हैं। शर्मा ने विगत वर्षो में हिन्दी साहित्य, सांस्कृतिक, इतिहास की राष्ट्र स्तरीय पुस्तकाओं का लेखन किया है जिनमें दुर्ग गागरोन, संत पीपाजी, झालावाड़ की सांस्कृतिक धरोहर, हिन्दी गीतकार पं. भरत व्यास, नृत्यकार उदयशंकर, सितारवादक पं. रविशंकर, पुष्टि मार्गीय द्वारकाधीश देवालय, अर्द्धनारीश्वर व चामुण्डा नवग्रह, मूर्तिकला आदि पर लिखे शोध लेख शामिल है। 
‘‘समाचार सफ़र’’ परिवार की ओर से इतिहासविद्व व दलित संतों पर शोधकार्य करने वाले श्री ललित शर्मा को इस प्राप्त हुए सम्मान के लिए हार्दिक बधाई और इनके उत्तरोत्तर प्रगति की मंगलकामनायें।     

‘हिन्दी रत्न’ से सम्मानित हुए साहित्यकार श्रीकृष्ण शर्मा

जयपुर। राष्ट्रीय हिन्दी परिषद्, मेरठ द्वारा चेम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री के सभागार में अपने रजत जयन्ति के उपलक्ष में आयोजित समारोह में साहित्यकार श्रीकृष्ण शर्मा को ‘हिन्दी रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। राष्ट्रीय हिन्दी परिषद् के अध्यक्ष डॉ. रत्नाकर पाण्डेय की अध्यक्षता में आयोजित हुए इस समारोह में उत्तर प्रदेश सरकार के राज्यमंत्री डॉ. यशवन्त सिंह ने शॉल ओढ़ा कर और चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. नरेन्द्र कुमार तनेजा ने स्मृति चिन्ह देकर श्रीकृष्ण शर्मा को सम्मानित किया।

इस आयोजन में तमिल व तेलगू के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. बालशौरी रेड्डी, हिन्दी के प्रख्यात विद्वान आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’, कविवर डॉ. मित्रेश कुमार गुप्त, डॉ. टी.जी. प्रभाशंकर प्रेमी, डॉ. एन.एस. विनयचन्द्रन, डॉ. अंजना संधीर, सरदार एच.एस. बेदी सहित देश भर से आए साहित्यकार शामिल हुए।  

‘राजस्थान की समकालीन हिन्दी कविता’ विषयक पर दो दिवसीय लेखक सम्मेलन

श्रीडूँगरगढ़ (विजय महर्षि)। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के सौजन्य से ‘राजस्थान की समकालीन हिन्दी कविता’ पर आधारित दो दिवसीय लेखक सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति श्रीडूँगरगढ़ द्वारा 8 व 9 अक्टूबर 2010 को समिति भवन में आयोजित हुआ। सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर गंगाराम जाखड़ ने कहा कि जब तक हमारी काव्य संवेदना लोक-संवेदना में एकाकार नहीं होगी तब तक वह जन समर्थन प्राप्त नहीं कर पायेगी। समकालीन कविता में अंतरण बेचैनी आज के जीवन के बीच मनुष्य के लिए स्पेश तलाश करती दिख रही है। मुख्य अतिथि हरीश करमचंदानी ने वैश्विक अर्थवाद की समस्याओं का जिक्र करते हुए समकालीन कवि धर्म को रेखांकित किया। परिचयों के प्रथम सत्र में राजस्थान की समकालीन हिन्दी कविता में लोक जीवन विषय पर पत्रवाचन डॉ. मदन गोपाल लढ़ा ने किया। सत्राध्यक्ष भंवरसिंह सामौर ने लोक संस्कृति और लोक संवेदना को व्याख्यापित किया। अन्य सभी सहभागियों द्वारा विषय पर गंभीर विमर्श किया गया। 
दूसरे दिन के विचार सत्र में प्रथम सत्र में राजस्थान की समकालीन हिन्दी कविता संवेदना और शिल्य विषय पर पत्रवाचन डॉ. उम्मेद गोठवाल ने किया, जिसमें उन्होंने कहा कि समकालीन कवियों की संवेदना में मानव जीवन एवं प्रकृति के विभिन्न पक्षों का विस्तार है। अध्यक्ष डॉ. नरपत सोढ़ा ने कहा कि समकालीन हिन्दी कविता का आधार घुटन से संत्रस्त मानव है। हरीश करमचंदानी ने कहा कि छंद मुक्तता कवि को आमजन से दूर कर रही है। अगले विचार सत्र में समकालीन हिन्दी कविता की परम्परा एवं विकास पर पत्रवाचन डॉ. गजादान चारण ने किया तथा सभी सहभागियों ने अपने विचार रखे। समारोह के समाचार सत्र में मुख्य अतिथि अशोक माथुर ने कविता के साथ हो रहे बाजारवाद के षडयंत्रों से कवि को सावधान रहने का संकेत दिया। साहित्यकार सत्यदीप ने कहा कि रोबोट एवं कम्प्युटर युग की विवशता में संवेदना को जीवित रखने का उत्तरदायित्व कवि पर ज्यादा हो गया है। कार्यक्रम का संचालन रवि पुरोहित ने किया।
इस दो दिवसीय कार्यक्रम के दौरान हनुमानगढ़ के कवि दीनदयाल शर्मा की कृतियों का लोकार्पण एवं समकालीन कवियों की कविताओं पर आधारित राजूराम बिजारणिया की चित्र प्रदर्शनी एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें अनेक कवियों ने अपनी काव्य प्रस्तुतियां दी।    

दानदाता रमेश जवेरी करेंगे एक हजार पौधारोपण, जिला कलेक्टर पवन ने की सराहना

सुमेरपुर (अनिल शाह)। ‘सेवा करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। किसी दुखी के चेहरे पर खुशी की मुस्कान दिखती है तो आत्मा को संतुष्टी मिलती है। सेवा का भाव बहुत ही महत्वपूर्ण है।’ ये उद्गार है पाली जिले के नए जिला कलेक्टर नीरज के. पवन के। श्री पवन जिले के साण्डेराव के निकट दुजाणा गांव में सुमित्रादेवी पन्नालाल राणावत चेरिटेबल ट्रस्ट की ओर से आयोजित निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर के उदघाटन समारोह को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि मनुष्य को सेवा कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए। मातृभूमि की याद करने वाले ऐसे सुपुतों के जज्बे को मैं सलाम करता हूँ। 
समारोह को समाजसेवी अनिल शाह ने सम्बोधित करते हुए जिला कलेक्टर की दानदाताओं को सम्मान व समर्थन एवं प्रशासनिक सहयोग देने की शैली की प्रशंसा करते हुए विश्वास जताया कि इनके कार्यकाल में गोडवाड व पाली जिले में विकास कार्यो के नए आयाम स्थापित होगें। दानदाता रमेश जवेरी ने कलेक्टर पवन की पहल पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के हरित राजस्थान कार्यक्रम के अंतर्गत सांडेराव से तख्तगढ़ सड़क मार्ग के दोनों तरफ करीब 1 हजार पौधरोपण कर उनके सार-संभाल की जिम्मेदारी ली। दानदाता रमेश जवेरी ने चार वर्ष पूर्व भी अपनी मां की स्मृति में करीब डेढ़ करोड़ रूपये की लागत से विद्यालय भवन का निर्माण कराया है। जिसका कलेक्टर पवन ने दुजाना पहुंचने पर निरीक्षण किया और कहा कि उन्होंने ऐसा विद्यालय पूरे राजस्थान मंे कहीं नहीं देखा। 

कलेक्टर की ओर से प्रेरित करने पर समाजसेवी रमेश जवेरी ने दुजाना में अपनी मां की स्मृति में एक ओर नया विद्यालय भवन का निर्माण करने की घोषणा की, जिसकी कलेक्टर ने तत्काल ही मौके पर स्वीड्डति दे दी। इस तुरंत स्वीड्डति के लिए भामाशाह रमेश जवेरी एवं तेजराज राणावत ने कलेक्टर श्री पवन का आभार व्यक्त किया। कलेक्टर पवन ने प्रजापिता ब्रहाकुमारी ईश्वरीय ग्लोबल अस्पताल की टीम द्वारा ट्रस्ट की ओर से आयोजित किए जा रहे निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर का भी  निरीक्षण किया और स्वयं अपनी आंखो की जांच कराई। जिला कलेक्टर नीरज पवन ने दानदाता रमेश जवेरी द्वारा शिक्षा व पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय कार्यो की सराहना करते हुए उन्हें हर सम्भव प्रशासनिक सहयोग देने का वादा किया। इस मौके पर समाजसेवी अनिल शाह, उपखण्ड अधिकारी नरेन्द्र बंसल, जिला वन अधिकारी अजय गुप्ता, बीडीओ दिनेश कुमार, प्रधान भंवरीदेवी गर्ग, तख्तगढ पालिकाध्यक्ष राजू रावल, जिला परिषद सदस्य हरिशंकर मेवाड़ा, महेश मीणा सहित गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। 
किशोर खीमावत से मिली प्रेरणा: दानदाता रमेश जवेरी को यह पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा गोडवाड हरा भरा बनाने वाले पर्यावरणविद् किशोर खीमावत से मिली। किशोर खीमावत अब तक करीब 2 लाख पौधे लगा चुके है। दानदाता जवेरी व जिला कलेक्टर नीरज के. पवन ने किशोर खीमावत के रणकपुर से रामदेवरा ग्रीन हाईवे प्रोजेक्ट की सराहना करते हुए उन्हें शुभकामनाएं प्रेषित की। ज्ञात रहे कि किशोर खीमावत रणकपुर से रामदेवरा तक कुल 450 किमी. सडक के दोनों ओर पौधरोपण करने के लिए संकल्पित है।

निगम महापौर की कार्यशैली से नाराज बने हुए पत्रकारों ने किया विरोध प्रदर्शन

लघु व मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों की उपेक्षा निन्दनीय और अलोकतांत्रिक कार्य: जीनगर गहलोत


कोटा। राष्ट्रीय मेला दशहरा के कार्यक्रमों की जानकारी देने के लिए गत दिनों 13 अक्टूबर बुधवार को निगम की ओर से स्थानीय चम्बल गॉर्डन स्थित दशहरा मेला समिति कार्यालय पर आयोजित हुई पत्रकार वार्ता में निगम द्वारा लघु व मध्यम श्रेणी के कहे जाने वाले समाचार पत्रों की उपेक्षा होने पर पत्रकारों ने नाराजगी जाहिर कर विरोध प्रदर्शन किया और महापौर डॉ. रत्ना जैन सहित निगम अधिकारियों के खिलाफ नारेबाजी की।  हाड़ौती पत्रकार संघ के अध्यक्ष पंडित बद्रीप्रसाद गौतम और महामंत्री अनिल तिवारी के नेतृत्व में आयोजित हुए इस विरोध प्रदर्शन को उचित ठहराते हुए इनके समर्थन मंे पत्रकार वार्ता में शामिल हुए प्रेस क्लब कोटा के सचिव हरिमोहन शर्मा सहित वरिष्ठ पत्रकार सदस्य कय्यूम अली, मनोहर पारीक, हरिवल्लभ मेघवाल, जितेन्द्र शर्मा, दिलीप सिंह शेखावत आदि ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस व निगम द्वारा आयोजित भोज का बहिष्कार किया और विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए।
हाड़ौती पत्रकार संघ के प्रवक्ता असलम रोमी ने अनुसार निगम की इस पक्षपातपूर्ण कार्यशैली को लेकर कुछ समय पहले ही महापौर, उपमहापौर, मेला समिति अध्यक्ष, मुख्य कार्यकारी अधिकारी आदि को संघ की ओर से ज्ञापन पत्र भी दिया जा चुका है। लेकिन निगम अधिकारियों की मनमानी और महापौर की गैरजिम्मेदाराना कार्यशैली के कारण से पत्रकारों को मजबूर होकर यह विरोध प्रदर्शन करना पड़ा। संघ के अध्यक्ष बद्रीप्रसाद गौतम और सचिव अनिल तिवारी ने कहा कि जहां एक ओर प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इन लघु व मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों के हितों के लिए प्रयासरत बने हुए हैं, वहीं दूसरी ओर नगर निगम कोटा की कांग्रेस की ही महापौर डॉ. रत्ना जैन द्वारा समझ कर भी नासमझ बन जानबूझकर लघु व मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों की उपेक्षा की जा रही है। इसलिए यदि इस कांग्रेसी महापौर को कांग्रेस की जन कल्याणकारी नीतियों का विरोधी भी कहा जाये तो शायद गलत नहीं होगा।
इस विरोध प्रदर्शन में मुख्य रूप से बद्रीप्रसाद गौतम, अनिल तिवारी, अब्दुल अलीम, भगवानदास महावर, हलीम रेहान, लक्ष्मीकांत शर्मा, सलीमुद्दीन काजी, अनिल देवलिया, मुरलीधर शर्मा, मुकुटलाल पंवार, रूपचंद जैन, मुनीफुर्रहमान, जीएस भारती, मोहनलाल बड़ौदिया, देवकीनंदन योगी, दीपक परिहार, भारत सिंह चौहान, रमेश गौड़, धर्मेन्द्र पूनिया आदि शामिल हुए। पाक्षिक समाचार सफ़र के प्रकाशक व संपादक जीनगर दुर्गाशंकर गहलोत ने नगर निगम की इस पक्षपातपूर्ण कार्यशैली की निंदा करते हुए इसे आलोकतांत्रिक कार्य बताया और कहा कि यदि कांग्रेसी महापौर चिकित्सक रत्ना जैन को लघु व मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों से इस कदर नफरत है और उनकी निगाह ये छोटे समाचार पत्र ‘अछूत समान’ हैं तो वह खुले रूप से अपनी बात को स्पष्ट करें। अन्यथा यह शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन संभवतः उनके शेष बचे हुए कार्यकाल के लिए ‘आत्मघाती’ साबित हो सकता है। ‘पद के दंभ’ से सत्ताएं नहीं चला करती है और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के शब्दों में ‘हर गलती कीमत मांगती है’।    
जीनगर गहलोत ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से इस मामले में हस्तक्षेप कर लघु व मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों को हरसंभव सहयोग किये जाने की मांग करते हुए जिला प्रशासन के प्रमुख अधिकारियों से भी आग्रह किया है कि वह शासकीय व प्रशासकीय स्तर की होने वाली हर पत्रकार वार्ता में लघु व मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों की उपेक्षा ना होने दें और इसके लिए सभी संबंधित अधिकारियों को आवश्यक आदेश/निर्देश जारी करें ताकि हर कॉन्फ्रेन्स में उनको भी आवश्यक रूप से आमंत्रित किया जाना शुरू हो सकें। वहीं, इस ओर राज्य सरकार के पीआरओ कार्यालय एवं केन्द्र सरकार के पीआईबी कार्यालय के प्रभारी अधिकारी भी ध्यान दें। जीनगर गहलोत ने उक्त प्रदर्शन के दौरान प्रेस क्लब कोटा के अध्यक्ष धीरज गुप्ता के निगम की आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मौजूद होने के बावजूद भी प्रदर्शनकारियों का समर्थन नहीं करने को चिन्तनीय व विचारणीय बताया और कहा कि जिस संस्था का प्रमुख यदि अपने सदस्यों की वाजिब मांगों के समर्थन पर मौन रहता है तो उस प्रमुख को अपने पद पर बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं होता है।
प्रेस क्लब, पत्रकारों का एक सम्मानीय संगठन है, सरकारी संस्था नहीं कि इसके पदाधिकारी अपने निज हित की खातिर संगठन के सम्मान को ही गिरवी रख दें। जनधन पर ‘दानवीर’ बने हुए इन ‘लुटेरे दानदाताओं’ द्वारा ‘दान’ समान दिये जाने वाला ‘भोज’ तो वर्ष भर में अधिकतम 65 दिन ही संभव हो सकेगा, बाकी के 300 दिन तो अपने घर पर ही ‘दाना-पानी’ चुगना होता है - प्रेस क्लब के पदाधिकारी और पत्रकारजन इस सत्य को सदैव ध्यान रखें और अपने सम्मान व पत्रकारिता दायित्व को कभी नहीं भूले, यदि वह अपने आपको ‘पत्रकार’ मानते हैं तो।         

हिन्दुत्व के सवालों को लिए हुए दलित कारसेवक की व्यथा-कथा

अयोध्या में राम मंदिर पर फैसले की घड़ी नजदीक आई तो उसको याद आया कि वो भी एक हिंदू कारसेवक था और मंदिर के लिए अयोध्या तक गया था। मगर अब वो महज एक दलित है। तब अयोध्या में विवादित ढांचा टूटा था, लेकिन विश्व हिंदू परिषद् के सक्रिय कार्यकर्ता रहे जयपुर जिले के चकवड़ा गांव के हरिशंकर बैरवा जब अपने गाँव लौटे और जो कुछ देखा, तो उससे उनका दिल टूट गया। उन्हें सहसा याद दिलाया गया कि वो महज एक दलित हैं, वो हिंदू तो हैं, मगर दर्जे से दोयम हैं। इसीलिए टूटे हुए दिल के हरिशंकर कहते है, ‘‘फिर मंदिर के लिए कार सेवा का आव्हान हुआ तो वो खुद तो क्या कोई भी दलित अयोध्या का रुख नहीं करेगा’’। हरिशंकर कारसेवक के रूप में चकवड़ा से गए कोई 10 लोगों के जत्थे में अकेले दलित थे। वो कहने लगे, ‘‘हम वहाँ मर भी सकते थे। गोलियाँ चली, कई लोग जख्मी हुए थे, पकड़े गए तो 15 दिन बुलंदशहर जेल में भी रहे। तब यही बताया गया कि हम सब हिंदू हैं, न कोई ऊंच है न नीच। पर ये सब फरेब ही था।’’
‘‘वो सिर्फ हिंदू-मुसलमानों की बात करते हैं. मगर जब दलित के साथ जुल्म की बात आती है तो वो चुप हो जाते हैं.’’ 
- हरीशंकर चकवड़ा, जयपुर 
तूफान
हरिशंकर की जिंदगी में यह तूफान तब आया जब गाँव के साझा तालाब में दलितों ने सदियों पुरानी उस परंपरा को बहुत सरल भाव से तोड़ने का प्रयास किया जिसमें दलित के लिए अलग घाट बना हुआ था। उनका कहना था, ‘‘उस दिन ‘सब हिंदू बराबर है’ की मानस पर अंकित तस्वीर टुकड़े-टुकड़े हो गई, जब हम पर जुर्माना लगाया गया, हमें अपमानित किया गया, हम पर हमले के लिए हिंदुओं की भीड़ जमा हुई और तालाब में दलितों के घाट से अलग पानी लेने पर गंभीर परिणामों की चेतावनी दी गई।’’ उस दिन मेरा मन बार-बार ये ही पूछता रहा- ‘‘क्या हम हिंदू नहीं है? अगर हिंदू हैं तो फिर ये सलूक क्यों?’’ ये सवाल उठाते हुए हरिशंकर के चेहरे पर कई भाव चढे़ व उतरे। वो कहने लगे, ‘‘एक विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता के नाते मैं अभिभूत था। लगा अभी साधु संत आएंगे, अभी प्रवीण तोगड़िया जी आएंगे। हम उन तक गए, गुहार भी की। मगर दलित के लिए कौन बोलता? क्योंकि वो तो कहने के लिए ही हिंदू हैं।’’
कभी हरिशंकर भी  ‘सौगंध राम की खाते हैं’ के नारे लगाते थे, मगर अब उनके घर में बने हुए एक संकुचित से पूजा घर में राजस्थान के लोक देवता रामदेव, गौतम बुद्ध और अम्बेडकर सबसे बड़े भगवान हैं। मैंने पूछा आरएसएस से कब से जुड़े हो? तो वे मुझे अतीत में ले गए, ‘‘आरएसएस में बचपन से ही जाना शुरू किया। वहां हमें बताया गया कि पूरे समाज को समरस बनाना है। मुझे ये ठीक लगा। फिर मंदिर का मुद्दा आया। हमें विहिप ने बताया कि अपने हिंदुओं के मंदिर पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया, उसे मुक्त कराना है। हम ये ही सोचकर गए कि सब हिंदू सामान है, सब भाई हैं।’’ फिर ऐसा क्या हुआ कि वो अब विरोध में खड़े है? क्या उनको बहका दिया है...? 
हरिशंकर कहते हैं, ‘‘जब तालाब से पानी की बात आई तो मैंने इनके व्यवहार में फर्क देखा। मैं विहिप के नेताओं के पास गया कि दलितों के साथ बुरा सलूक हो रहा है, मगर उन्होंने कोई रुचि नहीं ली। दलितों के साथ कदम-कदम पर भेदभाव होता है, उन्हें मंदिर में नहीं जाने दिया जाता, उनकी शादियों में बारात पर हमले होते है, विवाह में बैंड बाजे नहीं बजाने देते - ये बात कई बार मैंने विहिप की बैठकों में उठाई, पर किसी ने रूचि नहीं ली।’’
वो कहते हैं, ‘‘वो सिर्फ हिंदू-मुसलमानों की बात करते हैं. मगर जब दलित के साथ जुल्म की बात आती है तो वो चुप हो जाते हैं. हम पर विपत्ति आई तो गांव में विहिप समर्थक 50 लोग थे, या तो वे खामोश थे या भागीदार थे। मैंने विहिप वालों से कहा ये ठीक नहीं है, हम हिंदू धर्म से अलग हो जाएंगे।’’ जबकि, दूसरी ओर हिंदू संगठन अपनी इस असलियत को छिपाने के लिए कहते हैं कि इन दलितों को किसी ने बहका दिया है। वहीं, साधु-संत और धर्मग्रंथ कहते हैं कि न कोई ऊँचा है न कोई नीचा, यानि ‘हरी को भजे सो हरी का होय।’ मगर ये शायद जिंदगी का यथार्थ नहीं है। न जाने क्यों जब भी कोई दलित मंदिर की देहरी चढ़ता है या फिर पोखर, तालाब, और कुएँ पर प्यास बुझाने के लिए हाथ बढ़ाता है, उसे उसका सामाजिक दर्जा याद दिलाया जाता है। पर- क्या आस्था और प्यास को ऊंच-नीच में बांटा जा सकता है?
- नारायण बारेठ, बीबीसी संवाददाता, 
बी-47, अशोक विहार,  सेक्टर नं. 11 के पीछे, 
मालवीय नगर, जयपुर (राज.)   मो. : 94140-42277

अयोध्या प्रकरण - क्या इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय गैर-वैज्ञानिक सोच और अंधविश्वास को बढ़ावा देता है ?

भारत का संविधान लागू होने के बाद से आज तक न्यायपालिका के किसी भी निर्णय पर शायद ही इतनी परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं हुई हों, जितनी कि हाल ही में इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच द्वारा अयोध्या मामले में दिए गए  निर्णय पर र्हुइं। जहां अनेक लोग निर्णय का स्वागत कर रहे हैं वहीं ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो उसे गलत ठहरा रहे हैं। सारा देश सांस रोककर  इस निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा था। पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट इस निर्णय की घोषणा 24 सितम्बर को करने वाला था परंतु इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय की घोषणा पर रोक लगा दी और अंततः 30 सितम्बर को यह निर्णय सुनाया गया। 24 और 30 सितम्बर को पूरे देश में जिस बड़े पैमाने पर सुरक्षा व्यवस्था की गई, वह भी अभूतपूर्व थी।
क्या हम इतने असहिष्णु व अनुशासनहीन हैं कि न्यायपालिका के निर्णय को भी नहीं पचा सकते? जबकि हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार- हम संसद के फैसलों से असहमत हो सकते हैं। हम कार्यपालिका के निर्णयों से भी असहमत हो सकते हैं और उन्हें अस्वीकार कर सकते हैं। परंतु न्यायपालिका के किसी निर्णय से भले ही हम असहमत हों, परंतु हमें उसे स्वीकार करना ही होता है। एक कातिल को मौत की सजा सुनाई जाती है। वह भले ही इस निर्णय से असहमत हो परंतु उसे निर्णय को हर हालत में स्वीकार करना ही होगा।
लेकिन इस निर्णय को लेकर जिस बड़े पैमाने पर सुरक्षा व्यवस्था की गई थी उसका एक कारण यह संदेह था कि शायद समाज का एक हिस्सा न सिर्फ निर्णय को अस्वीकार कर देगा वरन् अपना आक्रोश प्रगट करने के लिए हिंसा का सहारा लेगा। यदि ऐसी स्थिति बनती तो उस पर नियंत्रण पाने के लिए ही यह कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई थी। इसका अर्थ बहुत साफ है। वह यह कि जहां एक व्यक्ति असहमत होते हुए भी न्यायालय के निर्णय को स्वीकार कर लेता है परंतु समाज ऐसा नहीं करता। यह इस बात का परिचायक है कि आज़ादी के 63 वर्ष बाद भी हम एक परिपक्व राष्ट्र नहीं बन सके हैं। निर्णय के दिन देश भर में सुरक्षा के इतने जबरदस्त इंतजामात थे जिसमें यह उम्मीद करना स्वाभाविक था कि नागरिक बिना डरे अपनी दैनिक गतिविधियां चालू रखेंगे। परंतु ऐसा नहीं हुआ और 30 सितंबर को व्यापारियों ने दुकानंे बंद कर लीं, दोपहर बाद सरकारी कार्यालय सूने हो गए, अधिकांश स्कूलों में छुट्टी घोषित कर दी गई और बहुसंख्यक लोग अपने घरों से नहीं निकले। सड़कों पर बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे और पतंग उड़ा रहे थे। यहां तक कि अस्पतालों में मरीज नहीं आये और डाक्टरों व नर्सों की उपस्थिति भी कम रही। अदालतें भी सूनी रहीं। यह स्थिति क्या इस बात की परिचायक नहीं है कि आम लोगों को सरकार और उसके द्वारा किये गये सुरक्षा बंदोबस्त पर भरोसा नहीं है? क्या उन्हें यह विश्वास नहीं है कि किसी अप्रिय घटनाक्रम के चलते पुलिस उनकी रक्षा कर पायेगी? क्या आमजनों को यह आशंका थी कि यदि कहीं भीड़ एकत्रित हो जायेगी तो पुलिस उसके सामने आत्मसमर्पण कर देगी? आम जनता और शासन के बीच बनी हुई अविश्वास की यह खाई निश्चित ही चिंताजनक है। जहां तक न्यायपालिका का सवाल है तो पिछले कुछ वर्षों में उसकी प्रतिष्ठा में भारी गिरावट आई है। आये दिन न्यायपालिका पर पक्षपात और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं, तो कुछ न्यायाधीशों को भ्रष्ट आचरण के कारण बर्खास्त भी किया गया है। इस निर्णय के संदर्भ में कुछ लोगों की यह मान्यता है कि यह न्यायिक निर्णय नहीं वरन् न्यायपालिका द्वारा सभी का तुष्टीकरण करने की कोशिश है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि निर्णय करते समय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों की उपेक्षा की गई है। संविधान में निहित प्रावधानों के अनुसार- आम लोगों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने का उत्तरदायित्व राज्य कोे सौंपा गया है और न्यायपालिका भी राज्य का ही हिस्सा है। आज भी हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी अंधविश्वास के दलदल में फंसी हुई है।
अंधविश्वास के कारण ही आज भी गांवों में किसी भी औरत को ‘टोहनी’ (डायन) बताकर इस संदेह में मार डाला जाता है कि उसके कारण गांव पर कोई विपत्ति आ सकती है। ‘टोहनी’ जैसा ही यह निर्णय हुआ है। जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह कहा है कि- विवादित स्थल ही राम की जन्मभूमि है। अदालत ने यह बात इस आधार पर कही कि हिन्दुओं की ‘आस्था’ के अनुसार राम का जन्म ठीक उसी स्थल पर हुआ था। जबकि इसमें पहली बात तो यह है कि सभी हिन्दू यह नहीं मानते कि राम वहीं पैदा हुये थे। इसलिए अदालत ज्यादा से ज्यादा यह कह सकती थी कि कुछ हिन्दुओं की आस्था के अनुसार राम वहीं पैदा हुये थे। इसके अतिरिक्त, अदालत को यह भी कहना था कि यह मात्र ‘आस्था’ ही है जिसका कोई ‘तर्कसंगत आधार’ नहीं है।
क्योंकि सदियों पूर्व घटी किसी घटना के संबंध में कोई भी बात पूरे विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती। फिर, यह भी तय किया जाना है कि- राम भगवान थे या इंसान? यदि वे भगवान थे तो भगवान न तो पैदा होते हैं और न ही मरते हैं। यदि संघ परिवार या अन्य कोई हिन्दू संगठन राम को भगवान मानता है तो उनके जन्म का तो प्रश्न ही नहीं उठता। और, यदि उन्हें इंसान माना जाता है तो वे सदियों पहिले पैदा हुए होंगे। जबकि हमने तो यह भी माना है कि वे कलयुग में पैदा नहीं हुये थे। फिर हिन्दू मान्यता के अनुसार कलयुग को प्रारंभ हुए भी हजारों वर्ष बीत चुके हैं। वहीं पिछले कुछ हजार वर्षों में पृथ्वी में अनेक भौगोलिक परिवर्तन भी हुए हैं। उन परिवर्तनों के कारण अनेक महल, अनेक किले बल्कि पूरे-पूरे शहर तक धराशायी हो धरती के गर्भ में समा गए होंगे। इसलिए यह कहना कि राम किसी स्थल विशेष पर पैदा हुये थे, अत्यधिक गैर वैज्ञानिक और अतार्किक हैै। फिर, राम का जन्मस्थल या तो घर रहा होगा या महल। उस समय अस्पताल तो थे नहीं। इस तरह राम के जन्मस्थल पर महल होना था न कि मंदिर। वैसे भी अयोध्या के  सभी मंदिरों के पुजारी दावा करते हैं कि राम उन्हीं के मंदिर में पैदा हुए थे। जब अयोध्या के हमारे पत्रकार मित्र शीतला सिंह ने रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष से जानना चाहा कि आप किस आधार पर दावा करते हैं कि राम यहीं पैदा हुए थे तब उन्होंने फरमाया कि यदि राम स्वयं प्रकट होकर कहें कि वे यहां पैदा नहीं हुए थे तो भी हम उनकी बात नहीं मानेगे और यह दावा करते रहेंगे कि राम की जन्मस्थली यही है। इस तरह के दावों से ही यह सिद्ध हो जाता है कि राम की जन्मभूमि का दावा किस हद तक गैर-वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित है। इसलिए किसी भी तार्किक सोच वाले व्यक्ति के लिए यह स्वीकार करना कठिन है कि- राम की जन्मस्थली, विवादित स्थल पर ही है।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि- क्या वहां राम मंदिर था? तो हाईकोर्ट ने इस बात को मान लिया है कि वहां राम मंदिर था और यह भी कि बाबरी मस्जिद, राम मंदिर के ऊपर बनी थी। अदालत का यह मत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ;एएसआईद्ध द्वारा की गई खुदाई पर आधारित है, जबकि अदालत के इस निष्कर्ष को देश के अनेक इतिहासकारों ने चुनौती दी है। उनका कहना है कि खुदाई के दौरान वहां पशुओं की हड्डियां पाई र्गइं। इसके अतिरिक्त वहां पर सुरखी तथा चूने का मिलना भी मस्जिद की उपस्थिति का ही संकेत देता है। उनका यह भी कहना है कि खुदाई में जो अन्य चीजे मिली थीं उनका परीक्षण इतिहासकारों और पुरातत्व विशेषज्ञों से कराया जाना चाहिए, ताकि सही तथ्य सामने आ सकंे। जिन इतिहासकारों ने इस आशय का बयान जारी किया है, वे हैं- श्रीमती रोमिला थापर, के. एम. श्रीमाली, के.एन. पन्नीकर, इरफान हबीब, उत्स पटनायक और सी.पी. चन्द्रशेखर। ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ हैं इसलिए उनकी राय की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
वैसे विभिन्न अखबारों ने भी इस निर्णय पर भिन्न-भिन्न टिप्पणियां की हैं जिसमें इकॉनामिक टाइम्स ने तो उसे गैर-न्यायिक निर्णय कहा है। अखबार का कहना है कि इस निर्णय से न तो कानूनी स्थिति साफ हुई है और न ही समझौते का रास्ता प्रशस्त हुआ है। यह निर्विवाद  है कि इस निर्णय से तनाव की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है। यही एकमात्र संतोष की बात है। परंतु क्या यह शांति आगे भी बनी रहेगी? - इस प्रश्न का उत्तर देना फिलहाल संभव नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं)
- एल. एस. हरदेनिया
ई-4, 45 बंगले, भोपाल - 462003 (म.प्र.)
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अयोध्या निर्णय : गुनाह करो और इनाम पाओ !

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच की तीन जजों की पीठ ने अयोध्या मामले में 30 सितम्बर 2010 को फैसला सुनाया। आशंकाओं के विपरीत, उस दिन और उसके बाद देश में कहीं हिंसा नहीं हुई। इसका श्रेय आमजनों की परिपक्व सोच को जाता है। किन्तु, जहां तक इस निर्णय का सवाल है तो यह फैसला तीनों ही संबंधित पक्षकारों यथा-रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड-के बीच संतुलन कायम करने की कवायद के सिवाय कुछ नहीं है, जिसमें विवादित भूमि को तीन भागों में बांट दिया गया है और तीनों पक्षकारों को बराबर-बराबर जमीन दे दी गई है। अपने इस फैसले मेें अदालत ने यह भी कहा है कि चूंकि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार बाबरी मस्जिद के बीच के गुंबद के ठीक नीचे भगवान राम का जन्मस्थल है इसलिए वह हिस्सा हिन्दुओं को दिया जाना चाहिए। इस फैसले से उत्साहित बने आरएसएस प्रमुख ने घोषणा की है कि अब विवादित भूमि पर भव्य राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया है और इस ‘राष्ट्रीय कार्य’ में सभी पक्षों को अपना सहयोग देना चाहिए।
यों इस मामले में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव द्वारा व्यक्त की गई प्रतिक्रिया ठीक ही है कि- इस फैसले से मुसलमान अपने आपको ठगे से महसूस कर रहे हैं। लेकिन, जिसे ‘राजनीतिक लाभ’ प्राप्ति का रूप दे दिया गया है। आखिर, इस सचाई पर टिप्पणी एक राजनेता ने जाहिर की है, जो अन्य राजनेताओं को हजम नहीं हो पा रही है। जबकि, इस विवाद से जुड़ा हुआ मुख्य विवाद और विचार करने की बात यह है कि- पहले तो उस मस्जिद में रात के अंधेरे में कुछ शरारती तत्व जबरदस्ती घुसकर रामलला की मूर्तियां स्थापित कर देते हैं। फिर, एक योजनाबद्ध षड़यंत्र के तहत संघ परिवार उस मस्जिद को ही जमींदोज कर देता है। और अब, न्यायालय ने संघ के इस विध्वंसकारी दावे पर ही अपनी मोहर लगा दी है कि भगवान राम उसी स्थल पर जन्मे थे! ऐसा लगता है कि इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन में रत अध्येता अपना समय और उर्जा बर्बाद कर रहे हैं, क्योंकि उनके ज्ञान की किसी को कोई जरूरत ही नहीं है। आखिर, इस फैसले से यही तो साबित हो रहा है कि इतिहास और पुरातत्व विज्ञान चाहे कुछ भी कहता रहे, कोई महत्व नहीं रखता। क्योंकि कोई भी राजनैतिक शक्ति, किसी भी आधारहीन तथ्य को आस्था का जामा पहना देगी और फिर उस आस्था के अनुरूप गैर-कानूनी कार्य करेगी तथा अंततः अदालत भी उसके इन आपराधिक कृत्यों को इस आधार पर सही ठहरा देगी कि- वे समाज के एक हिस्से की आस्था पर आधारित हैं! इस देश के जो नागरिक हमारे स्वाधीनता संग्राम और भारतीय संविधान के मूल्यों में आस्था रखते हैं, उनके लिए निश्चित ही यह अकल्पनीय है कि- देश की कोई अदालत इस तरह का निर्णय भी दे सकती है।
संघ परिवार ने सन् 1980 के दशक में राममंदिर आंदोलन का पल्ला थामा और उसने योजनाबद्ध (जिसे साजिश कहना उचित होगा) तरीके से हिन्दुओं के एक तबके को यह विश्वास दिला दिया कि भगवान राम ठीक उसी स्थल पर पैदा हुए थे जहां बाबरी मस्जिद स्थित थी। जबकि इसमें दिलचस्प बात यह है कि चन्द सदियों पहले तक राम, हिन्दुओं के प्रमुख देवता नहीं  थे। वे मध्यकाल में प्रमुख हिन्दू देवता बने, विशेषकर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की कहानी को सामान्य जनों की भाषा अवधी में प्रस्तुत करने के बाद। तब तक वाल्मिकी की संस्कृत रामायण प्रचलन में थी और चूंकि संस्कृत श्रेष्ठि वर्ग की भाषा थी इसलिए राम के पूजकों की संख्या भी अत्यन्त ही सीमित थी। तब के ब्राह्मण भी तुलसीदास से बहुत नाराज थे क्योंकि उन्होंने ब्राह्मणों की देवभाषा संस्कृत की जगह जनभाषा अवधी में रामकथा को लिखा। विचारणीय यह भी है कि जिस समय विवादित भूमि पर स्थित कथित राम मंदिर को तोड़ा गया था उस समय तुलसीदास की आयु लगभग 30 वर्ष रही होगी। तो क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि- तुलसी जैसे अनन्य रामभक्त द्वारा अपनी इस ‘रामकथा’ में कहीं भी इस बात की चर्चा तक नहीं की गई कि उनके आराध्य के जन्मस्थल पर बने मंदिर को एक आतातायी बादशाह ने गिरा दिया है!
यह साफ है कि शासक-चाहे वे किसी भी धर्म के रहे हों-केवल सत्ता और संपत्ति के उपासक थे। कई मौकों पर वे युद्ध में पराजित राजा को अपमानित करने के लिए उसके राज्य में स्थित पवित्र धर्मस्थलों को भी नष्ट कर देते थे परंतु इसके पीछे केवल राजनीति होती थी, धर्म नहीं। लेकिन अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत इतिहास की इन घटनाआंे को इस रूप में प्रस्तुत किया कि- मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू धर्म का अपमान करने के लिए हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त किया। अंग्रेजी लेखकों द्वारा साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से लिखे गए इसी इतिहास ने दोनों समुदायों को एक दूसरे का शत्रु बना दिया और यही बैरभाव आगे जाकर साम्प्रदायिक हिंसा का कारण बना। बाबरी मस्जिद एक संरक्षित स्मारक थी जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की थी। लेकिन, भारत सरकार न तो वर्ष 1949 में वहां गैरकानूनी ढंग से स्थापित रामलला की मूर्तियों को हटवा सकी और न ही वर्ष 1992 में ही मस्जिद पर संघ परिवार के हमले को रोक सकी। भारत सरकार की ये दो बड़ी असफलताएं थी और दुर्भाग्य से ये दोनों ही असफलताएं कांग्रेस शासन के समय में ही घटित हुई। ऐसे में, निश्चित ही अयोध्या मामले में हुए हालिया निर्णय से देश को साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकृत करने के आरएसएस के एजेन्डे को ही बढ़ावा मिलेगा। इस निर्णय ने जहां एक ओर रामलला की मूर्तियों की स्थापना को कानूनी वैधता प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के अपराध को नजरअंदाज भी किया है। इस तरह से न्यायालय की ओर से संघ परिवार को अपने गुनाहों का शानदार इनाम मिला है।
वहीं, अब आरएसएस और उसके बाल-बच्चे यही कह रहे हैं कि मुसलमानों को अपने हिस्से की जमीन हिन्दुओं को सौंप देनी चाहिए ताकि  वहां पर भव्य राम मंदिर बनाकर ‘राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं’ की पूर्ति की जा सके। जबकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि- भारतीय राष्ट्र, केवल हिन्दुओं का ही नहीं है। वहीं, सभी हिन्दू भी इस बात में विश्वास नहीं करते कि- विवादित स्थल ही भगवान राम की जन्मभूमि है और न ही सभी हिन्दू वहां राममंदिर बना देखना चाहते हैं। क्योंकि अधिकांश हिन्दू इस मंदिर-मस्जिद के मुद्दे से दूर ही रहे हैं और उन्हें अत्यन्त क्षोभ है कि आरएसएस ने भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए आम हिन्दुओं की राम में बनी हुई आस्था का दुरूपयोग ही किया है। जब से राम मंदिर चुनावी मुद्दा बना, हिन्दुओं की बहुसंख्या ने कभी राम मंदिर के एजेन्डे का समर्थन नहीं किया। हिन्दुओं का एक तबका अवश्य राम मंदिर का समर्थक है परंतु विभिन्न चुनावों के परिणामों से साफ हो चुका है कि बहुसंख्यक हिन्दू, संघ द्वारा भाजपा के लिए निर्धारित किये हुए राम मंदिर के एजेन्डे के साथ नहीं हैं। हाल ही में किए गए कुछ सर्वेक्षणों से भी यह सामने आया है कि- हिन्दुआंें के एक बहुत छोटे से हिस्से के लिए यह ‘राम मंदिर’ एक मुद्दा है। जबकि युवा पीढ़ी को तो राम मंदिर विवाद से कोई लेना-देना ही नहीं है, विशेषकर ऐसे राम मंदिर से जिसे देश पर दो अपराधों के जरिए थोपा जा रहा हो।
वहीं, अब कांग्रेस भी इस मुद्दे को मिल-बैठकर सुलझाने की बात कर रही है। जबकि संवाद के जरिए इस मुद्दे का किस तरह से क्या हल निकाला जा सकता है? - यह भी विचारणीय बात है। पहली बात तो यह है कि कोई भी हल न्यायपूर्ण होना चाहिए और उसमें सभी संबंधित पक्षकारों के अधिकारों को मान्यता मिलनी चाहिए। क्या कोई भी समझौता केवल लेन-देन के आधार पर ही हो सकता है? लेकिन जो लोग मुस्लिम समुदाय से सहयोग और समझौता करने के लिए कह रहे हैं, क्या वे यह वायदा कर सकते हैं कि उसके बाद देश में मुसलमानों को सुरक्षा और समानता मिलेगी? मुस्लिम समुदाय जो सामाजिक-आर्थिक मानकों पर पिछड़ता जा रहा है, तब क्या सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोग की रपटें बिना किसी देरी के लागू की जाएंगी? क्या आरएसएस राम मंदिर के बदले ये सब देने को तैयार है? क्या इसके बाद भारत मंे मुसलमान महफूज रहेंगे? विचारणीय तो यह भी है कि- मुसलमान भारत की आबादी का केवल 13.4 प्रतिशत हैं, जबकि दंगों में मारे जाने वालों में से 80 प्रतिशत मुसलमान ही होते हैं, आखिर क्यों? ऐसे में, क्या मुसलमानों के सहयोग से अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने के बाद आरएसएस अपने शिशु मंदिरों में मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने वाली पाठ्पुस्तकें पढ़ाना बंद कर देगा? ये वे मुख्य सवाल हैं जिनका जवाब आरएसएस और इसके विभिन्न शिशु संगठनों को खुले रूप से व साफ मन से देना होगा।
यों, इस तरह के समझौते में कोई समस्या भी नहीं है। बल्कि, यह तो बहुत ही अच्छा होगा कि अयोध्या में राम मंदिर के बदले ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों को देश मंे समानता का दर्जा मिल जाएऋ उनके खिलाफ किया जा रहा आधारहीन दुष्प्रचार बंद हो जाए और सरकार भी मनमोहन सिंह के इस वायदे पर अमल करने को तैयार हो जाए कि देश के संसाधनों पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों का पहला हक है। लेकिन सवाल यह भी है कि- क्या राम मंदिर बनाने में सहयोग किये जाने के बदले साम्प्रदायिक दंगों के दोषियों को सजा मिलना सुनिश्चित किया जा सकेगा? दिल्ली के सिक्ख विरोधी दंगों और मुंबई व गुजरात की मुस्लिम विरोधी हिंसा के लिए दोषी व्यक्ति, जो आज भी छाती फुलाए घूम रहे हैं, क्या उनको उनके कुकर्मों की सजा दिलवाना, उस ‘बातचीत’ से निकाले जाने वाले हल का भाग होगा? क्या मुसलमानों से त्याग की अपेक्षा करने के पहले भारतीय राज्य उन्हें यह गारंटी नहीं देना चाहेगा कि देश मंे कानून का राज रहेगा और उन्हेें पूरी सुरक्षा और आगे बढ़ने के समान अवसर मिलेंगे?
यह साफ है कि राम मंदिर के मुद्दे का इस्तेमाल भारतीय संविधान की आत्मा को आहत करने और विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव को खत्म करने के लिए किया जाता रहा है। अल्पसंख्यकों से त्याग करने की अपील तो हम सब कर सकते हैं, जबकि हम सभी को यह भी मालूम है कि उन्हें इस त्याग के बदले कुछ नहीं मिलेगा। साम्प्रदायिकता हमारे देश की सामूहिक सोच में इतनी मजबूत जड़ें जमा चुकी है कि मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। हिन्दू राष्ट्र के पैरोकार व हिन्दुत्व की राजनीति के झंडाबरदार, कभी भी मुसलमानों को शांति और गरिमा से नहीं रहने रहने देना चाहते। वहीं, संघ परिवार के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताएं कम महत्वपूर्ण हैं और अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए राम मंदिर, राम सेतु, गौ-हत्या आदि जैसे काल्पनिक मुद्दे अधिक।
यह सचमुच ही अत्यन्त दुःखद है कि समाज और राजनीति का इस हद तक साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है कि एक राजनैतिक धारा-विशेष द्वारा प्रायोजित ‘आस्था’, अब न्यायिक निर्णयों का आधार बन रही है। इसलिए यह भारत के लिए एक बहुत ही बुरा दिन है। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि युवा पीढ़ी और वे सब जो भारतीय संविधान में विश्वास करते हैं, संकीर्ण पहचान की राजनीति से दूरी बनाएंगे, उस राजनीति से जो धार्मिक आस्था को सत्ता तक पहुंचने का शार्टकट बनाना चाहती है। हमंे उम्मीद है कि हम ऐसे समाज को बनाने में सफल हांेगे जहां सबको न्याय मिलेगा और समाज के पिछड़े वर्गों के साथ विशेष रियायत बरती जाएगी।

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

-  डा. राम पुनियानी
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हमें हिंसा नहीं चाहिए

लोकचेतना में राम के नाम को आस्था का सत्य माना जाता है तो अहिंसा को परमधर्म कहा जाता है और प्रड्डति को न्याय का पर्याय समझा जाता है। लेकिन मनुष्य के समय का इतिहास बताता है कि सत्य का सपना देखने के लिये सुकरात को ज़्ाहर का प्याला पीना पड़ा था, तो अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए महात्मा गांधी को गोलियां खानी पड़ी थी और प्रकृति में न्याय को खोजते हुए ईसा मसीह को सूली पर चढ़ने के लिये खुद अपना सलीब ढोना पड़ा था। इस तरह गांधी और गोली का, भगतसिंह और फांसी का तथा लोकतंत्र और हिंसा का सदियों पुराना चोली-दामन का रिश्ता है। ऐसे में स्वतंत्र भारत के लोकराज में महात्मा गांधी की शहादत हमारी स्मृतियों की सबसे बड़ी हिंसा है। इसलिये हिंसा और अहिंसा, सत्य और असत्य तथा न्याय और अन्याय भी मनुष्य और प्रड्डति की सभ्यता के अभिन्न अंग है और राज्य व्यवस्था की संगठित हिंसा को भी कानून और प्रशासन की अनिवार्यता कहा जाता है। जिस तरह राजा की हिंसा को समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये प्रायः कानून सम्मत ठहराया जाता है उसी तरह बादशाह और सम्राट की हिंसा को भी समय और शासन की आवश्यकता ही घोषित किया जाता है। महात्मा गांधी को एक कट्टरवादी हिन्दू ने गोली मारी थी और इन्दिरा गांधी को भी एक धार्मिक आस्थावादी ने ही गोली मारी थी, तो राजीव गांधी को भी एक तमिल मुक्ति सैनिक ने ही हताहत किया था।
इस तरह की सभी हिंसक घटनायें देखकर हमारे मन में यह सवाल भी आता है कि आखिरकार इस हिंसा का औचित्य क्या है और यहां हिंसा का विकल्प किसी अहिंसा को कभी क्यों नहीं समझा गया? इतिहास का अनुभव भी यही बताता है कि तानाशाही और अधिनायकवादी शासन ही निहत्थे आम आदमी पर जब चाहे तब गोलियां चलवाता है। लेकिन लोकतंत्र में हिंसक गोलीबारी का बढ़ता पागलपन भी हमें यही सीख देता है कि शांति के लिये जिस तरह युद्ध जरूरी है, उसी तरह न्याय के लिये भी शायद जोर, जुल्म और दमन आवश्यक है! और, हर आदमी भी अपनी-अपनी बंदूक से न्याय के नाम पर करते हिंसा को अपनी प्रतिरक्षा कह रहा है! लेकिन, मनुष्य के भीतर बैठी इस नकारात्मक और सकारात्मक सोच को अनवरत युद्ध और शांति के लिये संघर्ष करते हुए देखकर मुझे लगता है कि- जब तक हिंसा रहेगी, तब तक अहिंसा के मंत्र भी दोहराते जायेंगे तथा गांधी और गोली की प्रांसगिकता पर भी बहस चलती रहेगी। आज मुझे तो कुछ ऐसा भी लगता है कि- महात्मा गांधी की अहिंसा और भगतसिंह की हिंसा दोनों ही न्याय और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये थी तथा दोनों ही अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ थी और अनिवार्य थी। अतः हिंसा और अहिंसा का प्रतिफल ही हमारी यह आज़्ाादी है।
लेकिन, हमारे अपने लोकतंत्र में हिंसा को किसी भी न्याय और सत्य का विकल्प कभी इसलिये नहीं कहा जा सकता क्योंकि हिंसा बढ़ाने वाली और फैलाने वाली राज्य व्यवस्था का जन्म भी हम भारत के नागरिकों की कोख से ही होता है। किन्तु, लोकतंत्र में हिंसा को हथियार बनाकर राज्य व्यवस्था को चुनौती देने पर यह प्रश्न भी मन में आता है कि- क्या आम नागरिक के न्याय और सत्य को खोजने व पाने के सभी रास्ते बंद हो गये हैं? और, क्या राज्य व्यवस्था का पूरा स्वरूप इतना भ्रष्ट और भेदभावपूर्ण हो चुका है कि- असहाय आम आदमी को अस्त्र-शस्त्र उठाने पड़ें? भारत में आजादी के 64 साल महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा को ठुकरा देने वाली लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को आज यह सोचना चाहिए कि - कश्मीर में अलगाववाद की हिंसा क्यों बढ़ रही है? - झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, पश्चिमी बंगाल, बिहार और आंध्रप्रदेश के आदिवासी जंगलों में नक्सलवादी और माओवादी हिंसा क्यों फैल रही है? - मणिपुर, असम, नागालैण्ड और मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में सशस्त्र उग्रवाद क्यों जारी है? तथा, अनेक राज्यों में कट्टर हिन्दुवाद और कट्टर मुस्लिमवाद के बीच साम्प्रदायिक हिंसक झड़पें क्यों हो रही हैं? आखिर, इन झगड़ों की जड़ में क्या है? और लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था इस हिंसा को केवल कानून और व्यवस्था का हिस्सा ही क्यों मान रही है तथा हिंसा का जवाब ‘संगठित हिंसा’ से ही क्यों दे रही है?
क्या कश्मीर की हिंसा पर सर्वदलीय पहल करने की तरह नक्सलवादी और साम्प्रदायिक हिंसा पर भी सर्वदलीय पहल नहीं की जा सकती? आप कभी यह भी तो सोचें कि- स्वतंत्र भारत के इतिहास में आज हिंसा का कोई भी विकल्प अब महात्मा गांधी की अहिंसा को आगे रखकर कोई भी नहीं ढूंढ रहा है। आज मार्क्सवादी और गांधीवादी सभी एक ही भेड़ चाल में प्रतिरोध को हिंसा से कुचल रहे हैं और अपने बल प्रयोग को अपने संविधान व व्यवस्थाओं का एक मात्र रक्षक भी बता रहे हैं। यही कारण है कि गांधीजी को अपना प्रणेता कहने वाली सरकार भी लगातार हिंसा का विकल्प सशस्त्र बलों में ही खोज रही है तथा गांधीजी की अहिंसा और सत्य के प्रयोग अब कोई नहीं कर रहा है। मुझे तो यह लगता है कि भारत की लोक आत्मा तो अहिंसक है लेकिन इसकी राज्य व्यवस्था पूरी तरह महाजनी (पूंजीवादी) सभ्यता की ढांचागत संगठित हिंसा पर ही आधारित है। इसीलिये आप हमें आज कोई एक भी किसी ऐसे राजनैतिक दल की राज्य और केन्द्र सरकार नहीं बता सकते कि- जिसने कभी हिंसा को अहिंसा से हराया हो और महात्मा गांधी का गौरव बढ़ाया हो। ऐसे में, अनादिकाल से राज्य व्यवस्था का मूल स्वर हिंसा ही है और दुनिया में एक भी देश (जापान के अलावा) ऐसा नहीं है जिसकी कि कोई फौज-सेना नहीं हो।
इसीलिये सभी धर्म व जातीय समाजों में कट्टरवादी व उदारवादी विचारधाराओं के बीच हजारों साल से हिंसा और अहिंसा का धर्मयुद्ध चल रहा है तथा एक के मन का भय ही दूसरे के मन के भय को साम, दाम, दण्ड, भेद से छलरहा है। महात्मा गांधी इसी कारण बहुसंख्यक बने हुए अहिंसक कहे जाने वाले समाज के बीच रहकर भी भयभीत अवस्था में हिंसक कहे जाने वाले अल्पसंख्यकों को देख रहे हैं और आप-हम राज्य व्यवस्था की हिंसा को रोज ख़बरों की तरह पढ़ रहे हैं। इसीलिये स्थिति यह बनी हुई है कि आए-दिन होने वाली हिंसा अब कोई कौतुहल और आश्चर्य हमारे मन में पैदा नहीं करती। इसलिए, महात्मा गांधी को याद करते हुए आज हमें इस कटु सत्य पर भी जरूर विचार करना चाहिए कि- शांति के कबूतर उड़ाने वाले देश में हिंसा का मूल क्या है? गौतम बुद्ध और महावीर के समाज में हिंसक गिरोह और सेनाओं के हस्तक्षेप का क्या मतलब है? हिंसा की राजनीति कौन, किसके लिए कर रहा है? और, सरकारी बंदूकों से आम आदमी ही हर बार क्यों मर रहा है? गरीब भारत और अमीर भारत के बीच एक हिंसक शीतयुद्ध क्यों चल रहा है? तथा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के जुआघर में आम आदमी का ही चीरहरण क्यों हो रहा है? हर बार गांधीजी की सत्य और अहिंसा ही संगठित हिंसा के निशाने पर क्यों है? तथा, क्या हमारी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के पास आम आदमी से संवाद और सुलह-सफाई का कोई दूसरा रास्ता अब शेष नहीं है?
ऐसे में, आने वाले समय और समाज के पास महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्य का अब कोई विकल्प नहीं होगा। क्योंकि धीरे-धीरे लोग हिंसा करते करते भी थक रहे हैं और चिर शांति के लिये अब उन्हें फिर से किसी ‘अहिंसा के मसीहा’ की तलाश है। क्योंकि केवल भौतिक विकास और लोकतंत्र ही 21वीं शताब्दी में किसी सत्य, अहिंसा और न्याय की पक्की गारन्टी नहीं है और लोकतंत्र में राज्य व्यवस्थाओं का विकास और विनाश भी इस संगठित और सामाजिक-आर्थिक ढांचागत हिंसा में ही छिपा है। इसलिए, एक गतिशील और परिवर्तनशील भारतीय समाज मंे महात्मा गांधी ही आज आम आदमी का अब अंतिम और आध्यात्मिक विकल्प है। अतः हमें भारत के शांतिप्रिय समाज से इस हिंसा का यह ज़हर निकालना ही होगा तथा महात्मा गांधी और भगतसिंह दोनों की शहादत को समझना ही होगा।


- वेद व्यास
‘भाईचारा फाउन्डेशन’
7/122, मालवीय नगर, जयपुर (राज.)
मो. : 94140-54400

सदा मुस्कराते विचारक व चिंतक शिवरामजी को - श्रद्धांजलि-श्रद्धांजलि-श्रद्धांजलि


५ और २० अक्टूबर के अंक में प्रकाशित
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‘विकल्प’ जनसांस्कृतिक मंच कोटा की श्रद्धांजलि

कोटा। मशहूर नाट्यकर्मी, साहित्यकार एवं मार्क्सवादी चिंतक शिवराम का आज 2 अक्टूबर को किशोरपुरा मुक्तिधाम पर अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। उनकी ‘अंतिम यात्रा’ को उनके तलवंडी स्थित निवास से प्रातः 8.30 बजे आरम्भ कर छावनी स्थित पार्टी कार्यालय पर सम्मान व्यक्त करने के लिए लाया गया। कार्यालय के बाहर भारी संख्या में कार्यकर्ताओं ने क्रांतिकारी नारे लगाकर शिवराम को क्रांतिकारी सलामी दी। लाल झंड़ों के साथ नारे लगाते हुए उनकी यह ‘अंतिम यात्रा’ किशोरपुरा मुक्तिधाम पहुंची। ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच के सचिव शकूर अनवर ने बताया कि शिवराम की अंतिम यात्रा में नगर के अनेक सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधियों के अलावा रंगकर्मी, पार्टी कार्यकर्ता, पत्रकार और गणमान्य नागरिकों ने शामिल होकर अपनी भावनात्मक उपस्थिति दर्ज कराई। 
अंतिम यात्रा में प्रमुख रूप से महेन्द्र नेह, अखिलेश अंजुम, अम्बिका दत्त, विनोद पदरज, चांद शेरी, ओम नागर ‘अश्क’, इन्द्रबिहारी सक्सेना, डॉ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी, अरविन्द सोरल, बृजेन्द्र कौशिक, रमेश मीणा, डॉ. फारूक बख्शी, प्रो. हितेश व्यास, डॉ. नलिन, अरूण सेदवाल, अतुल चतुर्वेदी, शरद उपाध्याय, मास्टर राधाड्डष्ण, शिवराज श्रीवास्तव, वेदप्रकाश प्रकाश, बद्रे आलम बद्र, विजय जोशी, आनंद संगीत, नागेन्द्र कुमावत, रघुनाथ मिश्र, अतुल कनक, श्रीनन्दन चतुर्वेदी, किशनलाल वर्मा, कुंवर जावेद, हेमन्त गुप्ता आदि कवि-शायरों और विधायक ओम बिड़ला, श्याम शर्मा, आर.के. स्वामी, पदम पाटौदी, जीनगर दुर्गाशंकर गहलोत, अब्दुल अलीम, अहमद अली खान, महेन्द्र पाण्डेय, दिनेश द्विवेदी, कन्हैयालाल जैन, महावीर सिंह, डॉ. रामकृष्ण आर्य, डॉ. जगतार सिंह, बी.एम. शर्मा, टी.जी. विजयकुमार, परमानंद कौशिक, सत्यनारायण जीनगर, अरूण भार्गव, अरविन्द भारद्वाज आदि राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं व पत्रकारों ने अपनी आत्मिक उपस्थिति दी। इस अंतिम विदाई में हैदराबाद से पार्टी के श्री एम. वैंकट रेड्डी और प्रदेश के अन्य शहरों से भी काफी संख्या में पदाधिकारी एवं कार्यकर्ता शामिल हुए।  अगले दिन 3 अक्टूबर शनिवार की शाम को 4 बजे दिवंगत शिवरामजी के निवास स्थान (4-पी-46, तलवंडी, कोटा) पर तीये की बैठक और 4 अक्टूबर सोमवार को शाम 5 बजे ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी रोड़ पर सर्वदलीय व साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा शोकसभा आयोजित हुई।

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साहित्य  व  नाट्यकर्मी  शिवराम  को शारदा  साहित्य  मंच  की  श्रद्धांजलि

रावतभाटा (श्याम पोकरा)। हाड़ौती अंचल के वरिष्ठ नाट्यकार एवं साहित्यकार स्व. शिवराम जी की स्मृति में शारदा साहित्य मंच रावतभाटा द्वारा 10 अक्टूबर रविवार को श्रद्धांजलि बैठक का आयोजन किया गया। माँ शारदा की प्रतिमा पर माल्यार्पण व दीप प्रज्जवलन के बाद नाथन पंडित ने सरस्वती वंदना की। तत्पश्चात् कथाकार श्याम पोकरा ने स्व. शिवराम जी के जीवन परिचय और उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हर पीड़ितजन के लिए उनका हृदय धड़कता था, उनकी रचनाओं में भी कमजोर जनों की पीड़ाओं की कराहट सुनाई देती है। उन्होंने कहा कि शिवरामजी की सर्वाधिक पहचान एक श्रमिक नेता के रूप में रही है जबकि वह एक कुशल नाटककर्मी व लेखनकर्मी भी रहे हैं। नाटक, कविता व विचारों पर उनकी आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। 23 दिसम्बर 1949 को करौली नगरी के एक साधारण स्वर्णकार परिवार में जन्में शिवरामजी का 1 अक्टूबर 2010 को आकस्मिक निधन हो गया। उनके निधन से श्रमिक व साहित्य क्षेत्र में अपूरणीय क्षति हुई है। 
साहित्यकार भागीरथ परिहार ने कहा कि शिवराम एक समर्थ व जुझारू नाटककार थे जिनका हृदय सदैव ऊर्जा से भरा रहता था। कोटा संभाग में शिवरामजी को नुक्कड़ नाटक का जनक कहा जाता है। ओ.पी. आर्य ने शिवरामजी के निधन पर दुख व्यक्त करते हुए कहा कि साहित्यकार कभी मरता नहीं है वह अपनी रचनाओं के साथ सदा हमारे बीच में मौजूद रहता है। दिनेश छाजेड़ ने शिवरामजी को आमजन का नाटककार बताया और कहा कि उनका नाम उनकी रचनाओं के साथ सदा अमर रहेगा। इसके बाद उपस्थित रचनाकारों ने शिवरामजी को समर्पित करते हुए रचनाऐं प्रस्तुत की। श्याम पोकरा ने शिवरामजी के प्रसिद्ध नाटक ‘हम लड़कियां’ का शीर्षक गीत प्रस्तुत किया। अंत में दो मिनिट का मौन रख सहनशील व जुझारू व्यक्तित्व के धनी स्व. शिवरामजी को श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

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क्रांतिकारी नारों और अश्रुपूरित नेत्रों से साथी शिवराम को अंतिम विदाई

कोटा। भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) की सर्वोच्च कमेटी ‘पोलिट ब्यूरे’ के सदस्य, सुप्रसिद्ध साहित्यकार व रंगकर्मी साथी शिवराम को अंतिम विदाई देने के लिए उनकी अंतिम यात्रा में नगर के श्रमिक, कर्मचारी, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार एवं गणमान्य नागरिक उमड़ पड़े। साथी शिवराम की अंतिम यात्रा में हैदराबाद से पार्टी की पोलिट ब्यूरो के सदस्य कॉमरेड एम.बी. रेड्डी सहित प्रदेश के प्रमुख पार्टी पदाधिकारी कॉ. गोपीकिशन, कॉ. रामपाल सैनी, वीरेन्द्र चौधरी, लीलादेवी, रामचन्द्रजी, ब्रजकिशोर, गंगासिंह मेड़तिया, दिलीप जोशी, अवधेश सिंह, रमेश चतुर्वेदी, भैरूलाल, घासीलाल, रमेश शर्मा आदि शामिल हुए। 
दिवंगत साथी शिवराम की अंतिम यात्रा 2 अक्टूबर शनिवार को प्रातः 8.30 बजे उनके तलवंडी निवास से आरम्भ होकर छावनी रोड़ स्थित पार्टी कार्यालय पर पहुंची। जहां पर उपस्थित सैकड़ों कार्यकर्ताओं, सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों व रचनाकारों ने उनको क्रांतिकारी नारों एवं अश्रुपूरित नेत्रों से अपना सम्मान व्यक्त किया। कॉ. एम.बी. रेड्डी ने कहा कि वे केवल राजनीतिक कार्यकर्ता मात्र नहीं थे बल्कि पार्टी के प्रेरणा दायक सिद्धांतकार थे। देश भर में पार्टी-कार्यालयों में उनके सम्मान में झंडे झुका दिये गये हैं और शोक सभाएंे हो रही हैं। श्रमिक, कर्मचारी व बौद्धिक समुदाय उनके निधन के समाचार से स्तब्ध रह गये हैं। 
छावनी रोड़ स्थित पार्टी कार्यालय परमेन्द्रनाथ ढन्डा भवन से दिवंगत साथी शिवराम को 21 झण्ड़ों की सलामी देते हुए कॉ. विजय शंकर झा, कॉ. महेन्द्र पाण्डेय व कॉ. गोपीकिशन ने लाल झंडा ओढ़ाकर पार्टी की ओर से सम्मान प्रकट किया। रास्ते भर ‘विचार के योद्धा अमर रहे’, ‘साहित्य के योद्धा अमर रहे’, ‘क़लम के योद्धा अमर रहे’ के नारों के साथ करीब 10 बजे किशोरपुरा मुक्तिधाम ले जाया गया। जहां बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाज के उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न किया गया। उनके पुत्रों रवि, शशि व पवन ने उपस्थित जन समुदाय के बीच अपने पिता की देह को अग्नि के समर्पित किया।

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स्मरणांजलि: शिवराम ने लुप्त होती जननाट्य शैली को पुनरार्वेष्टित किया

उदयपुर (डॉ. मलय पानेरी)। प्रसिद्ध जन नाट्यकार शिवराम के निधन पर एक स्मरणांजलि सभा में विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि शिवराम सचमुच क्रांतिधर्मी नाटककार थे। उनके नाटक लोकप्रियता की कसौटी पर भी खरे उतरे और श्रेष्ठता के सभी मापदंड भी पूरे करते हैं। वरिष्ठ कवि व चिन्तक नन्द चतुर्वेदी ने शिवराम के साथ विभिन्न अवसरों पर अपनी मुलाकातों को याद करते हुए कहा कि शिवराम ने नाटकों के नये स्वरूप को विकसित किया। उनका सदैव यह प्रयास रहा कि नाटक दर्शकों के साथ-साथ आम प्रेक्षक वर्ग तक भी पहुंचे। इस दृष्टि से उनके नाटक पूर्ण सफल रहे हैं। शिवराम ने लुप्त होती जननाट्य शैली को पुनः विकसित किया था। उनका मुख्य उद्देश्य नाटकों को जनप्रिय बनाये रखने का था। इसीलिए उनके नाटक विभिन्न आस्वादों से युक्त रहते थे। नन्द चतुर्वेदी ने उनके नाटक ‘जनता पागल हो गई है’, ‘पुनर्नव’, ‘गटक चूरमा’ आदि नाटकों का जिक्र करते हुए कहा कि ये नाटक बहुत लोकप्रिय रहे। उन्होंने शिवराम के कवि कर्म को रेखांकित करते हुए कहा कि उनकी कवितायें एक विनम्र और शालीन कवि का आभास देने के साथ व्यवस्था में बदलाव की बेचैनी भी दर्शाती है। प्रसिद्ध आलोचक प्रो. नवलकिशोर ने अपने उद्बोधन में कहा कि शिवराम सच्चे मायने में एक सफल नाटककार होने के साथ-साथ अच्छे रंगकर्मी भी थे। रंगकर्म के साथ-साथ उनका नाट्य सृजन अनवरत चलता रहा और उनके नाटक उत्तरोत्तर नवप्रयोग को सार्थक करते रहे। उन्होंने कहा कि शिवराम ने इस प्रदर्शनकारी विधा का जनता के पक्ष में सदुपयोग किया। उन्होंने नाट्य साहित्य को जनसामान्य तक पहुंचाने का श्रेयस्कर कार्य किया। श्रमजीवी महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मलय पानेरी ने शिवराम के विभिन्न नाटकों की चर्चा करते हुए कहा कि शिवराम के नाटक नाट्य रूढ़ियों को तोड़ने वाले थे। उनके नाटकों का मूल उद्देश्य जन-पहुंच था। इस दृष्टि से उन्होंने नाटकों के साथ कोई समझौता नहीं किया तात्विक दृष्टि से कोई कमजोरी ही क्यों न रह गई हो। शिवराम के नाटक आम प्रेक्षक के नाटक सिर्फ इसलिए बन सके कि उनमें सार्थक रंगकर्म हमेशा उपस्थित रहा है। हिन्दू कॉलेज नई दिल्ली के हिन्दी सहायक आचार्य डॉ. पल्लव ने शिवराम के कृतित्व को वर्तमान संदर्भो में जोखिम भरा बताया। उन्होंने कहा कि शिवराम ने लेखकीय ग्लैमर की परवाह किये बिना साहित्य और विचारधारा के संबंधों को फिर बहस के केन्द्र में ला दिया है। 
जन संस्कृति मंच के राज्य संयोजक हिमांशु पंड्या ने शिवराम की संगठन क्षमता को प्रेरणादायक बताते हुए कहा कि ‘विकल्प’ के मार्फत वे नयी सांस्कृतिक हलचल में सफल रहे। लोक कलाविद डॉ. महेन्द्र भानावत ने कहा कि नाटकों को लोक से जोड़े रखना वाकई मुश्किल है और शिवराम ने अपने नाटकों के साथ हमेशा लोक-चिंता को सर्वोपरि रखा। उनकी यही खासियत उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देती है। श्रमजीवी महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक डॉ. ममता पानेरी ने कहा कि शिवराम नाटककार के साथ-साथ अच्छे रंगकर्मी भी थे। रंगकर्म की उनकी समझ आज के संदर्भ में ज्यादा संगत लगती है। कार्यक्रम के अंत में राजेश शर्मा ने कहा कि शिवराम जननाटकों के भविष्य थे और सार्थक रंगकर्मी के साथ ही अच्छा नाटककार होना शिवराम ने ही प्रमाणित किया है।

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श्रमिक नेता शिवराम को श्रमजीवी विचार मंच की श्रद्धांजलि

कोटा। श्रमजीवी विचार मंच कोटा की ओर से छावनी स्थित ट्रेड यूनियन कार्यालय में साम्यवादी विचारक, लेखक व श्रमिक नेता कॉमरेड शिवराम स्वर्णकार के असामयिक निधन पर 2 अक्टूबर शनिवार को श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई। सभा का आरम्भ करते हुए सचिव टी.जी. विजयकुमार ने साथी शिवराम के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उनका जीवन सर्वहारा वर्ग को समर्पित रहा है और उनके लेखन, चिंतन व विचारधारा में श्रमजीवी, पीड़ित व शोषित वर्ग सदा ही केन्द्र में रहा है। उनके असामयिक निधन से हुई अपूरणीय क्षति की पूर्ति करना संभव नहीं है। साथी शब्बीर अहमद ने श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन्हें श्रमिक वर्ग का मसीहा बताया। साथी महेन्द्र नेह ने उन्हें साहित्य लेखन का पुरोधा बताते हुए उनके नाटक ‘जनता पागल हो गई’ व ‘घुसपैठिये’ का जिक्र किया और बताया कि उनका लेखन सर्वहारा वर्ग व आमजन की समस्याओं पर केन्द्रित रहा है। साथी महेन्द्र पाण्डेय ने उनके निधन को श्रमिक जगत के लिए अपूरणीय क्षति बताया। साथी बी.एम. शर्मा ने श्रमिक आंदोलन में उनके सहयोग को याद करते हुए सराहा और कहा कि वह अंतिम समय तक इसी वर्ग हेतु सोचते रहे व संघर्ष की राह पर ही चलते हुए उन्होंने अपना बलिदान कर दिया। श्रद्धांजलि सभा में तारकेश्वर तिवारी, परमानन्द कौशिक, विजय जोशी ने भी अपने विचार रखते हुए उनको व उनके योगदान का स्मरण किया। श्रद्धांजलि सभा की अध्यक्षता साथी नारायण शर्मा ने की और सभा के अंत में दो मिनिट का मौन रखकर श्रद्धांजलि अर्पित की गई।


Wednesday, October 27, 2010

स्मृति-शेष :: दिवंगत कॉमरेड शिवराम जी को भाव्यांजलि

५ और २० अक्टूबर के अंक में प्रकाशित
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‘शिवरामजी नहीं रहे’ - अभी भी विश्वास नहीं होता। विश्वास हो भी तो क्यों हों? नाम के भी बीमार नहीं, परिवार की ओर से भी कोई तनाव नहीं, अन्य कोई आम जीवन संबंधी समस्या भी नहीं। समय के सफ़र के साथ ही पूरे ओज़-ज़ोश के साथ ज़ीवन का सफ़र भी चल रहा था। चल क्या रहा था, अपनी गति के साथ मंद-मंद मुस्कान लिये बह रहा था। चेहरे पर हर पल बनी रहने वाली ‘मुस्कान’, जो मात्र ‘मुस्कान’ ही नहीं थी बल्कि एक संदेश था- ‘जीवन का नाम ही संघर्ष हैं और संघर्ष से कभी डरना नहीं है, इसी का नाम ‘जीवन-सफ़र’ है।’ यानि- जीवन भी एक ‘एडवेन्चर’ ही है और शिवरामजी ने इस जीवनरूपी एडवेन्चर को भरपूर जीया, हर पल जीया। शिवरामजी एक ‘छलिया’ भी थे, जो हताश-निराश इंसान को पूरे विश्वास के साथ जीवटता प्रदान करने और विरोधी को भी पूरी आत्मीयता के साथ अपना बना लेने की ‘छलिया कला’ में पारंगत थे। आखिर- मार्क्सवादी चिंतक व साहित्यकर्मी होने के साथ ही वह नाट्यकर्मी भी जो थे। तभी तो, अचानक ही हम सब को ‘छलकर’ हम सबका यह प्रिय व आत्मीय ‘छलिया कलाकार’ बेफिक्री के साथ चला गया और छोड़ गया सब आत्मीयजनों को शोकाकुल करता, बिलखता व अचम्भित करता हुआ। 
कोई कह रहा है अभी आधे घंटे पहले ही मिलकर गया है, दुबारा मिलने आने के लिए। कोई कह रहा है अभी कुछ समय पहले मध्यान्ह का लंच साथ ही लिया था। मैं भी तो यही कह रहा हूं कि वह (जिन्हें हम ताऊजी कहते थे लेकिन वह सदा ही हम बच्चों के साथ हमउम्र बनकर ही बात किया करते थे) ‘कल’ (30 सितम्बर, गुरूवार को) ही तो मेरे पास आये थे अपनी प्रकाशित होने वाली पुस्तकों की सामग्री का फ्रुफ चेक करने और फ्रुफ चेक कर व कुछ देर बतियाते हुए ‘कल’ (1 अक्टूबर, शुक्रवार को) फिर आने की कहकर गये थे। लेकिन उसी ‘कल’ को यानि 1 अक्टूबर शुक्रवार को मध्यान्ह बाद करीब 4.30 बजे युवा कवि व पत्रकार ओम नागर ‘अश्क’ ने पापाजी जीनगर दुर्गाशंकर जी गहलोत को यह सूचना दी कि ‘शिवरामजी नहीं रहे’। अचम्भित करते हुए तुरंत ही रूला गया था पापाजी को यह समाचार। क्योंकि ठीक एक वर्ष पहले ही 29 सितम्बर 2009 मंगलवार की शाम को करीब 6.30 बजे भी पापाजी को एक ऐसा ही अचम्भित व शोकाकुल कर देने वाला समाचार मिला था। उस दिन उनके भाई-दोस्त-गुरू यानि दो शरीर व एक आत्मा कहे जाने वाले दरगाह अधरशिला के जॉ-नशीन बाबा सिद्दीक अली सा. (जिन्हें हम चाचाजी कहते व मानते हैं) के इंतकाल (निधन) का उनको अचानक समाचार मिला। उस आकस्मिक घटना को पापाजी अभी तक भी नहीं भूले हैं और वैसी ही घटना ठीक एक साल बाद शिवरामजी के निधन की फिर घटित हो गई। ‘जीवन का सच ही मौत है’ यह बात पापाजी हमेशा कहते रहते हैं, लेकिन इन दो आकस्मिक मौतों ने तो पापाजी जैसे जीवट इंसान में भी थर्र-थराहट पैदा कर दी। 
आखिर, पापाजी ने इस समाचार पर डरते-सहमते मुझसे पूछा और चाचाजी परमानंद जी कौशिक (एलआईसी में सेवारत) से पूछा। तब तक अंकल महेन्द्र जी नेह व शकूर अनवर जी इस शोक समाचार को टाइप कराने मेरे पास आ चुके थे। विश्वास तो नहीं था, लेकिन सच भी यही था इसलिए विश्वास तो करना ही था। त्रिमूर्ति कहे जाने वाले शिवराम जी, महेन्द्र नेह जी व शकूर अनवर जी के तीन शरीर व एक आत्मा में से एक मूर्ति अचानक ही विलीन हो गई उस अनजाने सफ़र पर, जिसे आज तक न तो कोई देख ही सका है और न ही समझ सका है। पापाजी तो शिवरामजी के चिर-परिचित श्री सुरेश पंडित सा. (अलवर) और श्री वेद व्यास सा. (जयपुर) तक को सूचित करने का साहस नहीं कर सकंे। शाम को अलवर से ही पंडित सा. का फोन आने के बाद ही वह जयपुर व्यास सा. से बात कर सकें। अलवर पंडित सा. को जम्मू से शैलेन्द्र जी चौहान ने और जयपुर व्यास सा. को कोटा से ओमजी नागर ‘अश्क’ ने सूचित कर दिया था। मैं भी ‘कल’ में अपने कार्यस्थल पर इंतजार ही करता रहा शिवरामजी का, लेकिन वह नहीं आए और आया तो उनके अंतिम सफ़र का समाचार। शायद इसे ही नियति और विधि का विधान कहते हैं। यही वह नियति व विधान है जिसकी ताकत को ‘नास्तिक’ बने हुए इंसानों को भी मानना ही पड़ता है, फिर हम तो आस्तिक है। 
अगले दिन 2 अक्टूबर शनिवार को यानि समूचे विश्व के अहिंसा के पुजारी कहे जाने वाले महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर कॉमरेड शिवरामजी को किशोरपुरा (चम्बल गॉर्डन के पास) स्थित श्मशान घाट (जिसे मुक्ति धाम, मोक्ष घाट व मोक्ष द्वार भी कहा जाता है) पर असंख्य आत्मीयजनों की मौजूदगी में ‘कॉमरेड शिवराम-लाल सलाम’, ‘कॉमरेड शिवराम-अमर रहे’, ‘जब तक सूरज-चांद रहेगा-कॉमरेड शिवराम याद रहेंगे’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के गंुजायमान नारों के साथ उनके तीनों सुपुत्रों रविकुमार, शशिकुमार व पवनकुमार ने अश्रुपूरित नेत्रों से पिता शिवरामजी का अग्निदाह कर अपने पितृऋण का निर्वहन किया। लेकिन, शरीर से विदा हुए शिवरामजी अपने आत्मीयजनों की आत्माओं व स्मृतियों में सदैव ही ‘स्मृति शेष’ के रूप में हर घड़ी, हर पल मौजूद हैं और रहेंगे, यही मेरा मानना है और विश्वास भी है। तभी तो, उनको अर्पित की जाने वाली श्रद्धांजलियों व भाव्यांजलियों का दौर अभी भी जारी है और जारी रहेगा जीवन-पर्यन्त किसी ना किसी रूप-प्रतिरूप में। इसे भी एक संयोग ही कहा जायेगा- 30 सितम्बर 2010 गुरूवार को अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला, 1 अक्टूबर 2010 शुक्रवार को चिंतक व विचारक शिवरामजी का निधन, और 2 अक्टूबर 2010 शनिवार को महात्मा गांधी के जन्म दिवस को शिवरामजी की अंतिम विदाई। 
उम्मीद है कि अब उनके तीनों सुयोग्य पुत्र रवि, शशि व पवन अपने दिवंगत पिता श्री शिवरामजी रूपी अनुपम व अद्भुत विरासत को उनकी सोच व आशा के अनुरूप जीवन्तता प्रदान कर उसे अनवरत जारी रखेंगे। और, इसमें इनके सहभागी व सहयोगी बन अपने कर्त्तव्य दायित्व का निर्वहन करें शिवरामजी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले सभी सहयोगीजन। क्योंकि- ‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है / बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’ वैसे, वह स्वयं ‘स्मृति-शेष’ तो बन ही चुके हैं। आख़िर में, समूची मानवता और मानव जाति के सबसे ज्यादा वंचित वर्गों पर हो रहे जुल्मों के प्रतिवाद में अपना सारा जीवन लगा देने वाले इंसानों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वहारा वर्ग के महाकवि ज़नाब फैज़ अहमद फैज़ सा. की लिखी गई इन पंक्तियों के साथ मैं नन्हीं सी जान सम्मानीय दिवंगत शिवरामजी को नमन करते हुए अपनी भावनाओं को विराम दे रहा हूँ - ‘‘चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ / ज़ुल्म की छॉव में दम लेने पर मजबूर हैं हम / इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें / अपने अज़दाद की मीरास है माज़ूर  हैं हम / ज़िस्म  पर कै़द है जज़्बात पे जंजीरे हैं / फ़िक्ऱ महबूस है गुफ़्तार पे ताजिरे हैं / और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं।’’

स्मृति-शेष :: कामरेड शिवराम का असामयिक निधन

५ और २० अक्टूबर के अंक में प्रकाशित
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शिवराम के व्यक्तित्व की खूबी थी कि वे आम जीवन में सामान्य थे। लेकिन उनके पास असाधारण मेधा और संगठन क्षमता थी। मैं निजी तौर पर उनकी मौत से असहाय सा महसूस कर रहा हूँ। क्योंकि मैं जब भी फोन करता या कोई बात उन्हें कहनी होती तो उसमें उनकी बेचैनी और ममता दोनों की गरमी महसूस करता था। अचानक इंटरनेट पर फेसबुक से पता चला कि साथी शिवराम का आज (एक अक्टूबर को) निधन हो गया। मैं व्यक्तिगत तौर पर उनसे कभी नहीं मिला, लेकिन विगत 40 सालों से उनके काम के संपर्क में था। मैं उनकी रचनाओं का पाठक रहा हूँ । उनकी रचनाएं वे चाहे कविता हो, नाटक हो, निबंध हों, इन सबसे मुझे प्रेरणा मिलती रही है। मजदूरवर्ग के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए शिवराम ने अपने जीवन के अंतिम दिनों तक संघर्ष किया और मजदूरवर्ग व किसानों के हितों के बारे में वे बार-बार सोचते रहते थे। मैंने पिछले साल जब इंटरनेट पर ‘मुक्तिबोध सप्ताह’ का आयोजन करने का फैसला किया तो उसी सिलसिले में मेरी उनसे पहली बार बहुत लंबी बातचीत हुई। मजेदार बात यह थी कि हम दोनों एक-दूसरे के रचनाकर्म से ही परिचित थे। कुछ  महिना पहले उन्होंने वर्धमान की यात्रा का निर्णय लिया था और वे चाहते भी थे कि उस समय हमारी उनकी मुलाकात हो जाए लेकिन ऐसा हो न सका, मैं किसी काम के चक्कर में कोलकाता के  बाहर था। शिवराम ने अपने लेखन और आंदोलनकारी व्यक्तित्व के कारण राजस्थान में खासकर अपनी विशिष्ट पहचान बनायी थी और जनवादी सांस्कृतिक मूल्यों और समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए अतुलनीय कुर्बानियां दी हैं। वे हमारे हमेशा प्रेरणा के स्रोत रहेंगे। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
‘अनवरत ब्लाग’ में दिनेशजी ने उनके बारे में लिखा है- अभी शिवराम जी के घर से लौटे हैं। हम शाम को जब उन के घर पहुँचा तो घर के बाहर भीड़ लगी थी, जिनमें नगर के नामी साहित्यकार, नाट्यकर्मी, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता, दूरसंचार कर्मचारी और बहुत से नागरिक थे। शिवराम के बड़े पुत्र रवि कुमार (जिन्हें आप सृजन और सरोकार ब्लाग के ब्लागर के रूप में जानते हैं) आ चुके थे, सब से छोटे पुत्र पवन दो माह पूर्व ही कोटा में नया नियोजन प्राप्त कर लेने के कारण कोटा में ही थे। मंझले पुत्र शशि का समाचार था कि वह परिवार सहित ट्रेन में चढ़ चुका है और सुबह चार-पाँच बजे तक कोटा पहुँच जाएंगे। बेटी के भी दिल्ली से रवाना हो चुकने का समाचार मिल चुका था। सभी शोकाकुल थे। छोटे भाई और शायर पुरुषोत्तम ‘यकीन’ शोकाकुल हो कर पूरी तरह पस्त थे और कह रहे थे आज मैं यतीम हो गया हूँ। हम करीब दो घंटे वहाँ रहे। शिवराम अब चुपचाप लेटे थे। 
मैं जानता था, वह आवाज जिसे मैं पिछले 35 वर्षों से सुनने का अभ्यस्त हूँ अब कभी सुनाई नहीं देगी। उनकी आवाज हमेशा ऊर्जा का संचार करती थी। वैयक्तिक क्षुद्र स्वार्थों से परे हट कर मनुष्य समाज के लिए काम करने को सदैव प्रेरणा देता यह व्यक्तित्व सहज ही हमें छोड़ कर चला गया। डाक्टर झा से वहीं मुलाकात हुई। बता रहे थे कि जैसा उनका शरीर था और जिस तरह वे अनवरत काम में जुटे रहते थे, हम सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें इस तरह हृदयाघात हो सकता है कि वह अस्पताल तक पहुँचने के पहले ही प्राण हर ले। शिवराम दोपहर तक स्वस्थ थे। सुबह उन्होंने अपने मित्रों को टेलीफोन किए थे। कल शाम कंसुआँ की मजदूर बस्ती में एक मीटिंग को संबोधित किया था। दोपहर भोजन के उपरांत उन्होंने असहज महसूस किया और सामान्य उपचार को नाकाफी महसूस कर स्वयं ही पत्नी और मकान में रहने वाले एक विद्यार्थी को साथ ले कर अस्पताल पहुँचे थे। अस्पताल में जाकर मूर्छित हुए तो फिर चिकित्सकों का कोई बस नहीं चला। उनकी हृदयगति सदैव के लिए थम गई थी। मात्र 61 वर्ष की उम्र में इस तरह गए कि अनेक लोग स्वयं को अनाथ समझने लगे।
शिवराम जी  का जन्म 23 दिसंबर 1949 को राजस्थान के करौली नगर में हुआ था। पिता के गांव गढ़ी बांदुवा, करौली और अजमेर में शिक्षा प्राप्त की। फिर वे दूर संचार विभाग में तकनीशियन के पद पर नियुक्त हुए। दो वर्ष पूर्व ही वे सेवा निवृत्त हुए थे। वे जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय रहे। अपने विभाग में वे कर्मचारियों के निर्विवाद नेता रहे। वे एक अच्छे संगठनकर्ता थे। प्रारंभ में वे स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित थे। लेकिन उस मार्ग पर उन्हें समाज में परिवर्तन की गुंजाइश दिखाई नहीं दी। बाद में वे मार्क्सवाद के संपर्क में आए, जिसे उन्होंने एक ऐसे दर्शन के रूप में पाया जो कि दुनिया और प्रत्येक परिघटना की सही और सच्ची व्याख्या ही नहीं करता था, बल्कि यह भी बताता था कि समाज कैसे बदलता है। वे समाज में परिवर्तन के काम में जुट गए। उन्होंने अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए नाटक और विशेष रूप से नुक्कड़ नाटक को सबसे उत्तम साधन माना। वे नुक्कड़ नाटक लिखने और आसपास के लोगों को जुटा कर उन का मंचन करने लगे। उन का नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ हिन्दी के प्रारंभिक नुक्कड़ नाटकों में एक है। यह हिन्दी का सर्वाधिक मंचित नाटक है। इस नाटक और शिवराम के अन्य कुछ नाटक अन्य भाषाओं में अनुदित किए जाकर भी खेले गए। वे नाट्य लेखक ही नहीं थे, अपितु लगातार उन के मंचन करते हुए एक कुशल निर्देशक और अभिनेता भी हो चुके थे। वे पिछले 33 वर्षों से हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ का संपादन भी कर रहे थे।
साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सांगठनिक काम के महत्व को वे अच्छी तरह जानते थे। आरंभ में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से वे भी एक थे। लेकिन जल्दी ही सैद्धान्तिक मतभेद के कारण वे अलग हुए और अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा ‘विकल्प’ के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वर्तमान में वे ‘विकल्प’ के महासचिव थे। मूलतः सृजनधर्मी होते हुए भी संघर्षशील जन संगठनों के निर्माण को वे समाज परिवर्तन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे और संगठनों के निर्माण का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देते थे। वे सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ प्रभावशाली वक्ता भी थे। लोग किसी भी सभा में उन्हें सुनने के लिए रुके रहते थे। एक अध्येता और चिंतक थे वे। श्रमिक-कर्मचारी आंदोलनों में स्थानीय स्तर से ले कर राष्ट्रीय स्तर तक विभिन्न नेतृत्वकारी दायित्वों का उन्होंने निर्वहन किया। अनेक महत्वपूर्ण आंदोलनों का उन्होंने नेतृत्व किया। दूर संचार विभाग से सेवानिवृत्त होने के उपरान्त उन्होंने भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड एमसीपीआईयू) की सदस्यता ग्रहण की और शीघ्र ही वे पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य हो गए।
उनकी प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं - नाटक संग्रहः जनता पागल हो गई है, घुसपैठिए, दुलारी की माँ, एक गाँव की कहानी, राधेया की कहानी, गटक चूरमा, सेज पर विवेचनात्मक पुस्तकः सूली ऊपर सेज, नाट्य रूपांतर संग्रहः पुनर्नव, कविता संग्रहः माटी मुळलकेगी एक दिन, कुछ तो हाथ गहो, और, खुद साधो पतवार। दिवंगत शिवराम जी का अंतिम संस्कार 2 अक्टूबर सुबह कोटा में किशोरपुरा मुक्तिधाम में सम्पन्न होगा। प्रातःकाल आठ बजे अंतिम यात्रा उनके निवास से आरंभ होगी और ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी जाएगी। जहाँ उनके पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शनों के लिए कुछ देर रखा जाएगा। उसके उपरांत सर्वहारा वर्ग के एक यौद्धा और सेनापति के सम्मान के साथ अंतिम यात्रा किशोरपुरा मुक्तिधाम पहुँचेगी, जहाँ उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न होगा। 
शिवरामजी की काव्यात्मक ‘अनुभवी सीख’: ‘‘एक चुप्पी हजार बलाओं को टालती है, चुप रहना भी सीख, सच बोलने का ठेका, तूने ही नहीं ले रखा। / दुनिया के फटे में टांग अड़ाने की, क्या पड़ी है तुझे, मीन-मेख मत निकाल, जैसे सब निकाल रहे हैं, तू भी अपना काम निकाल, अब जैसा भी है, यहाँ का तो यही दस्तूर है, जो हुजूर को पसंद आए वही हूर है। / नैतिकता-फैतिकता का चक्कर छोड़, सब चरित्रवान भूखों मरते हैं, कविता-कहानी सब व्यर्थ है, कोई धंधा पकड़, एक के दो - दो के चार बनाना सीख, सिद्धांत और आदर्श नहीं चलते यहाँ, यह व्यवहार की दुनिया है, व्यावहारिकता सीख, अपनी जेब में चार पैसे कैसे आएँ, इस पर नजर रख। / किसी बड़े आदमी की दुम पकड़, तू भी किसी तरह बड़ा आदमी बन, फिर तेरे भी दुम होगी, दुमदार होगा तो दमदार भी होगा, दुम होगी तो दुम उठाने वाले भी होंगे, रुतबा होगा, धन-धरती, कार-कोठी सब होगा। / ऐरों-गैरों को मुहँ मत लगा, जैसों में उठेगा बैठेगा, वैसा ही तो बनेगा, जाजम पर नहीं तो भले ही जूतियों में ही बैठ, पर बड़े लोगों में उठ-बैठ। / ये मूँछों पर ताव देना, चेहरे पर ठसक और चाल में अकड़, अच्छी बात नहीं है, रीढ़ की हड्डी और गरदन की पेशियों को, ढीला रखने का अभ्यास कर। / मतलब पड़ने पर गधे को भी, बाप बनाना पड़ता है, गधों को बाप बनाना सीख। / यहाँ खड़ा-खड़ा, मेरा मुहँ क्या देख रहा है, समय खराब मत कर, शेयर मार्केट को समझ, घोटालों की टेकनीक पकड़, चंदे और कमीशन का गणित सीख। / कुछ भी कर, कैसे भी कर, सौ बातों की बात यही है, कि अपना घर भर, हिम्मत और सूझ-बूझ से काम ले, और- भगवान पर भरोसा रख।’’
- लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार और विचारक  हैं. इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफेसर है। 
संपर्कः jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in