Thursday, October 28, 2010

लेखकों के विरोध की सार्थकता पर उठता सवालिया निशान ?

महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय के महिला लेखिकाओं के बारे में दिये गये आपत्तिजनक बयान और उसे ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रमुखता के साथ छापने पर संपादक रवीन्द्र कालिया को लेकर उठे विवाद का अब प्रायः अंत हो गया है। आश्चर्य है कि हिन्दी के सैकड़ों छोटे-बड़े लेखकों द्वारा इन दोनों के विरूद्ध कटु आक्रोश प्रकट करने के बावजूद यह प्रतिरोधात्मक अभियान बिना किसी निर्णायक अथवा इच्छित परिणाम तक पहुंचे ही समाप्त हो गया। पर, अपने पीछे यह जो सवाल छोड़ गया है उस पर गंभीरतापूर्वक अब यह विचार करने की जरूरत है, आखिर- इस लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में सत्ता प्रतिष्ठानांे के प्रमुख पदों पर बैठे महानुभावों के गलत आचरणों को रोकने और उन्हें दंडित कराने के लिये कौन-से उपाय किये जायें कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर भरोसा कायम रह सकें? जाहिर है शांतिपूर्वक सामूहिक विरोध प्रदर्शन का अब सरकारों पर कोई असर होता दिखाई नहीं दे रहा है और हिंसात्मक रूख अपनाने या रास्ता जाम कर देने जैसे उपाय अपनाना लेखकों को अपनी स्वयं धारित प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं लगता। 
वैसे लेखकों को यह कटु अनुभव पहली बार ही हुआ है। इससे पहले दिल्ली की हिन्दी अकादमी में अशोक चक्रधर की ताजपोशी करने को लेकर और बाद में वरिष्ठ साहित्यकार ड्डष्ण बलदेव वैद को शलाका सम्मान से वंचित करने पर भी ऐसा ही विरोध प्रदर्शन हुआ था। उससे पहले केन्द्रीय साहित्य अकादमी में गोपीचंद नारंग के आने पर और बंगला साहित्य की लोकप्रिय लेखिका तसलीमा नसरीन के पश्चिमी बंगाल से दर-बदर किये जाने पर भी ऐसा ही हंगामा हुआ था। राजस्थान में तो पिछली भाजपा सरकार ने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद पर एक ऐसी महिला को ला बैठाया था जो आयुर्वेद में डिग्री प्राप्त थी और अपने विषय में पुस्तकें लिखने के कारण लेखिका मान ली गई थी। उनका भी जमकर विरोध हुआ था, पर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी। उम्मीद थी कि सरकार बदलने पर कोई उपयुक्त व्यक्ति इस पद पर बैठेगा लेकिन वर्तमान कांग्रेस सरकार अपना लगभग आधा कार्यकाल पूरा करने को है फिर भी राज्य की सभी अकादमियों के अध्यक्षों की कुर्सियां खाली पड़ी है। उसे शायद यह लग रहा है कि सचिव और संभागीय आयुक्त अर्थात् सरकारी कर्मचारी ही जब अकादमियों का काम चला रहे हैं तो फिर अध्यक्षों की नियुक्ति कर क्यों आलोचनाओं को न्यौता दिया जाये!
निश्चय ही यह स्थिति चिन्ताजनक है और लेखकों को अपनी हैसियत, अपने लेखन की उपयोगिता और अपने सरोकारों की विश्वसनीयता पर पनुर्विचार करने के लिये बाध्य करती है। दरबारी या राज्याश्रयी लेखन को यदि अपवाद मान लें तो हम पाते हैं कि हर युग में इसके तेवर सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति तीखे-आलोचनात्मक रहे हैं। सत्ता चाहे नरेशों, महानरेशों की रही हो या लोकतांत्रिक शासन में तानाशाही स्वेच्छाचारी सरकारों की रही हो, लेखकों ने उनके कार्य व्यवहार को आम लोगों की भलाई के कांटों पर ही तोला है और तोल में कमी पाने पर उनकी निन्दा करने से वे कभी चूके नहीं हैं। इतना ही नहीं उन्होंने उन धार्मिक कर्मकांड़ों और सामाजिक रीति-रिवाजों पर भी जमकर प्रहार किये हैं जो लोगों की भलाई के रास्तों में अड़चन डालते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द जब साहित्य को ऐसी मशाल बताते हैं जो लोगों को सही राह दिखाती है तो अनिवार्यतः लेखकों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे भी बहुसंख्यक लोगों के न्याय पाने के लिये किये जाने वाले संघर्ष के पक्ष में हाथ उठाते दिखाई दें। विचारधारा चाहे कोई भी हो या न हो, लेखकीय संवेदना इस स्वतः निर्धारित भूमिका से कभी अलग नहीं होती।
लेकिन आज हालत यह है कि करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक चंद लोग संसद और विधानसभाओं में न केवल पहुंचने लगे हैं बल्कि उन्होंने जन-प्रतिनिधि की हैसियत से अपने आपको दीन-हीन लोगों का सबसे बड़ा हित-चिंतक भी घोषित कर दिया है। साफ जाहिर है कि चंद पूंजीपतियों ने लोकतंत्र को ‘हाईजैक’ कर लिया है। उनके लिये सत्ता में बने रहना ही सबसे बड़ी प्राथमिकता है, इसलिये वे हर उस व्यक्ति को लाभ पहुंचाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें सत्ता में बने रहने में सहायक हो सकता है। उनके लिये बड़ा से बड़ा लेखक भी उस कार्यकर्ता से छोटा है जो उनके हर अच्छे-बुरे काम में आंख-कान मंूदकर उनके पक्ष में खड़ा होता है। वे जानते हैं कि लेखकों की आलोचना से उनके वोट बैंक पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। तभी तो एक-दो विधायकों की आपत्ति पर कृष्ण बलदेव वैद को सम्मान से वंचित कर दिया जाता है। बांग्ला देश से आये मुसलमानों के नाराज होने के डर से तस्लीमा को पश्चिम बंगाल से निकाल दिया जाता है और आधिकारिक विद्वानों की जगह गृह मंत्रालय के अधिकारी यह तय करने लगते हैं कि- कौन सी पुस्तक लोगों की आस्था पर चोट करने वाली है! लेखकों की आलोचना को निष्प्रभावी बनाने के लिये वे अपनी पार्टी की आलोचना स्वयं ही करवा लेते हैं। फिर विपक्ष और मुख्यधारा का मीडिया तो यह काम करता ही रहता है। ऐसे में उनकी सत्ता प्रतिरोधी भूमिका स्पष्टतः अपना अपेक्षित असर नहीं छोड़ पाती।
सच यह है कि लेखक जो कुछ लिखता है वह जब पाठक तक पहुंचता है तो उसे भावविह्नल किये बिना नहीं रहता। हर लेखक अपना एक पाठक-प्रशंसक समूह बनाता है। वह छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। उसमें अभिजात और अनभिजात दोनों तरह के लोग शामिल रह सकते हैं। क्या यह संभव नहीं है कि- वह अपने पाठक समूह से रचना के माध्यम से मिलने के अतिरिक्त समय-समय पर व्यक्तिगत संपर्क भी कायम करना शुरू करे? और, वह जिन सभाओं, सम्मेलनों, गोष्ठियों, सेमिनारों में जाये इस शर्त के साथ जाये कि उनमें उसके पाठक भी शामिल हों? उदाहरण के लिये मैं एक ऐसे लेखक को जानता हूं जिन्हें आमंत्रित करने पर उनकी यह शर्त सामने आई कि उस सभा में कम से कम दस प्रतिशत ऐसे लोग भी शामिल होंगे जिन्होंने उनकी एक-दो पुस्तकें पढ़ी होंगी। ऐसी कुछ पत्र/पत्रिकाओं के उदाहरण भी मेरे सामने रहे हैं जिनमें संपादक, लेखक और पाठक आमने-सामने रहकर एक-दूसरे से जिरह करते हैं।
इसी तरह एक अखिल भारतीय साक्षरता एवं सतत शिक्षा समारोह में मुझे तमिलनाडू और केरल के कुछ ऐसे साहित्यकार भी मिले जो अपनी किताबें लेकर गांवों और कस्बों में नियमित जाते हैं और आम लोगों के बीच उनका पाठ करते हैं, अपने अनुभव उनके साथ शेयर करते हैं और उनके विचारों से स्वयं को लाभान्वित करते हैं। इस तरह के अभियानों के कई फायदे हो सकते हैं, जैसे- लेखक अपने लेखन की कमियों, अनुभवों की प्रामाणिकता और विचारों की प्रासंगिकता का आकलन कर सकता है। वह अपनी अगली रचना के लिये कच्चा माल प्राप्त कर सकता है। उसके सामने वह अनजाना, अनदेखा पाठक नहीं रहता जिसकी पृष्ठभूमि व मानसिकता की वह कल्पना कर लेता है या सैकिण्ड हैन्ड जानकारी के बलबूते पर उसकी छवि गढ़ लेता है। जाने-पहचाने पाठक समूह के लिये लिखने को जब वह प्रवृत्त होगा तो उसके सामने न केवल पाठकों की इच्छा अनिच्छायें बल्कि उनकी समस्यायें भी स्पष्ट रहेंगी और वह उन्हें उनकी स्तरानुरूप भाषा में अपनी बात कह सकेगा। पाठकांे में भी अपनी पैठ गहरी कर लेखक न केवल उन्हें अपना प्रशंसक ही बना लेगा बल्कि उन्हें अपने आंदोलनों में भागीदार बनने के लिये कह भी सकेगा। 
अन्यथा उसका यह कहना कि विभूति नारायण राय का बयान न केवल लेखिकाओं को बल्कि सारी नारी जाति को अपमानित करने वाला है - कोई मायने नहीं रखता। क्योेंकि यदि वह सही होता तो उसके विरोध में इन विरोध करने वाले लेखक व लेखिकाओं के साथ कम से कम कुछ पढ़ी लिखी आम औरतें या जन प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली सारी महिला सांसद तो खड़ी होती?

- सुरेश पंडित

383, स्कीम नं. 2,
लाजपत नगर, अलवर (राज.)
मो. : 92149-45156 एवं 80587-25639

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