Monday, October 11, 2010

क्या है सुप्रीम कोर्ट के अपने संवैधानिक अधिकार की सीमा ?

20 सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित
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वर्तमान स्थिति यह है कि 100 मिलियन व्यक्ति इस संसार में प्रतिदिन भूखे सोते हैं। भारत में भी 25 करोड़ व्यक्तियों को प्रतिदिन या तो एक वक्त का खाना नहीं मिलता या भूखे पेट सोने को विवश होना पड़ता है। देश की 37.2 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है। यह भी आंकड़ें हैं कि लगभग 20 करोड़ व्यक्ति गरीब तो है किन्तु उनके पास बी.पी.एल. का कार्ड नहीं है। दूसरी ओर 50 हजार करोड़ का अनाज प्रतिवर्ष भंडारण कुप्रबन्ध के कारण, सरकार की लापरवाही के कारण - पशुओं के भी खाने लायक नहीं बचता। यह भी सबूत है कि स्वयं सरकार ने कम सड़े-गले अनाज को अमीर लोगों के पशुओं के खाने के लिये देश के बाहर 3 करोड़ रूपयों में बेचा है। यह भी कहा गया है कि इस सड़े-गले अनाज को शराब बनाने के लिए भी ‘शराब-मालिकों’ को बेचा गया है।
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अभी 1 करोड़ टन अनाज के और सड़ने व गलने का अंदेशा है। यह अनाज लगभग 6 करोड़ लोगों का पेट भर सकता है। पर, कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट के अपने संवैधानिक अधिकार की सीमा के प्रश्न को लेकर तीखी टिप्पणियां की जाकर उसके इस अधिकार के संबंध में एक प्रश्न खड़ा कर दिया है। वर्तमान टिप्पणी तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष यशस्वी बैरिस्टर सोमनाथ चटर्जी ने की है और सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील शान्तिभूषण ने इसका समर्थन किया है। ये दोनों यह तो मानते हैं कि भंडारण की अव्यवस्था के फलस्वरूप अनाज गल रहा है, सड़ रहा है तथा दूसरी ओर देश का ही गरीब भूख से मरने की कगार पर खड़ा हुआ है। संभवतः यह भी वे मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का इस विषय पर चिन्ता करना भी सही है, किन्तु उनका विरोध इस बात को लेकर है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अनुपालना होना संभव नहीं है क्योंकि सरकार की मुफ्त खाद्यान बांटने की कोई नीति नहीं है। इसलिए इस प्रकार के आदेश को पारित कर न्यायालय ने अपने अधिकार का सही प्रयोग नहीं किया और उसने अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा लांघ दी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में यह अभिव्यक्त किया हुआ है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह प्राणीमात्र के प्रति करूणा की भावना रखे। गरीब और भूखा व्यक्ति भी प्राणी ही है। न्यायाधीश भी नागरिक है और उनका भी कर्त्तव्य है कि वे ऐसे व्यक्तियों के प्रति करूणा भाव रखें। इस प्रकार यदि देश के ही एक नागरिक ने दूसरे नागरिक के प्रति करूणा भाव की अभिव्यक्ति कर दी है तो इसमें दोष कहां पर है? यह तो नागरिक-कर्त्तव्य का निर्वहन है, जो संवैधानिक है। अनाज के अभाव में नागरिक मरने की कगार पर हो और उसकी रक्षा का दायित्व रखने वाली सरकार उस अभागे व्यक्ति को अनाज मुहैया नहीं करा कर उसे सड़ने व गलने से रोक नहीं पा रही है। तब, न्याय करने वाली सबसे बड़ी संस्था यदि ऐसे अनाज को, जिसे सरकार सुरक्षित रखे जाने में असमर्थ है, उन गरीब भूखों को मुफ्त में वितरित करने का सरकार को निर्देशन देती है - तो उसमें कहां पर दोष है? और वह कहां पर सीमा को लांघ रही है? न्यायपालिका तो अपना धर्म ही निभा रही है, इसलिए इसे सीमा का उल्लंघन कहना न्यायसंगत नहीं है। अपितु, यदि इन परिस्थितियों में भी देश की ‘सुप्रीम कोर्ट’ चुप्पी साधे रहती है तो- क्या यह कहा जा सकता है कि न्यायालय ने अपना धर्म निभाया? आखिर, अनैतिक कानून ‘अवैध कानून’ होता है और सदाचार विहीन न्याय ‘न्याय’ नहीं हो सकता।
भोपाल गैस काण्ड में जब अमेरिकन एडवोकेट्स भारत में प्रभावित व्यक्तियों को न्याय दिलाने के लिये मिलने वाले मुआवजे से अपनी फीस वसूल करने के इरादे से अमेरिकन कोर्ट में पैरवी के लिये आये थे ताकि अमेरिकन कोर्ट से अधिक मुआवजा दिला कर अधिक फीस अर्जित कर सकें। तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तब देश के महान दार्शनिक एडवोकेट नाना पालखीवाला ने उन्हें ‘मांस नोचने वाला पक्षी’ कहा था। हमारा संविधान कहता है कि देश की प्रभुसत्ता इस देश के हर नागरिक में निहित है। केन्द्र सरकार एक वोट से गिर गई थी इसकी भी सबको जानकारी है। ऐसे में, जब देश के 40 लाख व्यक्ति भूखे सो रहे हैं - तो क्या उनके प्रति सत्ता पक्ष का कोई कर्त्तव्य नहीं है? सत्ता पक्ष वाले तो लोक सेवक हैं और संविधान के अनुसार सत्ता तो जनता में निहित है। सिविल सर्विसेज के कानून के तहत कार्य करने वाले व्यक्ति को कर्त्तव्य के प्रति उदासीनता का आरोप लगाकर नौकरी से निकाला जा सकता है। बड़ा ही दुःखद पहलू है कि संविधान में इन भूखे नंगों को सत्ता का केन्द्र बिन्दु तो मान लिया गया, किन्तु कर्त्तव्यहीनता करने वाले इन ‘लोक सेवकों’ के प्रति सजा देने का कोई प्रावधान नहीं दिया गया?    
  सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के कई निर्णय हैं जिनमें स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय को कार्यपालिका व विधयिका के भी अधिकार है। न्याय दिलाना न्यायालय का धर्म है। इसलिये अनुच्छेद 142 मंे उसे न्याय करने के लिये अपरिमित आनुषंगिक शक्तियां व अधिकार दिये हैं और संविधान के अनुच्छेद 144 में यह कह दिया है कि लोक सेवकों के लिये निर्णय की पालना करना सरकार का कर्त्तव्य है। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ‘स्वयं कानून’ है। हमारे संविधान में तो इलेक्शन कमीशन को भी विधायिका के अधिकार है। चूंकि न्यायपालिका केवल अपने निर्णयों के माध्यम से ही बोल सकती है। हमें यह भी समझना होगा कि एक नहीं अनेक विषयों को लेकर यदि कार्यपालिका आज अपना कार्य नहीं कर रही है तो उसे सचेत करने का कार्य न्यायपालिका का है और यही पी.आई.एल. का आधारभूत मंत्र है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनाज भंडारण के कुप्रबन्ध पर सरकार की खिंचाई कर जो निर्देशन दिया है, वह विधि सम्मत है। आखिर, सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को क्यों नहीं लागू किया जा सकता है - समझ मंे नहीं आता? जबकि सरकार को एक आदेश अपने अधिकारियों को और राज्य सरकारों को देना है कि जो अनाज असुरक्षित स्थिति में है और जो अनाज सड़ व गल सकता है, उसे राज्य सरकार व केन्द्र शासित राज्य तत्काल गरीबों में वितरित कर दें - कम मूल्य पर या बिना मूल्य पर। ताकि उसे बर्बाद होने की अपेक्षा उपयोग में तो लिया जा सकता है। 
वहीं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में कोई भी व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के प्रति अपनी टिप्पणी कर देता है। कभी कुछ समय पहले भोपाल गैस काण्ड के मामले में पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अहमदी के निर्णय को लेकर आलोचना की गई थी, बिना इस बात को देखे कि वह निर्णय उनके अन्य साथी जज ने लिखा था। उन्होंने नहीं, वे उस पीठ में साथी जज अवश्य थे। इस निर्णय को अन्य कैसेज में भी रेफर किया गया है और इसे बड़ी पीठ में ले जाने की अथवा इसकी ‘रिव्यू पिटीशन’ पेश करने की भी किसी ने वकालत नहीं की। उस केस में पैरवी करने वाले वकीलों में से किसी ने गलत पैरवी की हो, यह भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि देश के सबसे अच्छे वकीलों ने उसमें पैरवी की थी।
वहीं, देश के किसी भी एम.पी. ने आवाज नहीं उठाई कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304ए को परिवर्तित किया जाना चाहिए। धारा 304ए की जो व्याख्या की गई है उसमें कोई तो दोष बता दें? क्या सर्वोच्च न्यायालय अब उस व्याख्या को 14 वर्ष बाद बदल पायेगी? विधायिका का कर्त्तव्य था और आज भी है कि- वह कानून को ‘समय की पुकार’ के साथ बदल दें।
आर्थिक व सामाजिक न्याय भी मूलभूत अधिकार का एक अंग है, इसे हमें समझना होगा। यह एक व्यावहारिक मामला है- मानवीय मूल्यों का, भोजन के अधिकार का और खाद्य सुरक्षा का। यह प्रश्न तो इतना ही है कि- क्या भंडारों में पड़े अथवा भंड़ारों के अभाव में अनाज को सड़ने दिया जावे या उसे भूखे लोगों में बांट दिया जावे? उपरोक्त पस्स्थिितियों में, सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्देशन दिये वे किसी भी प्रकार से संवैधानिक सीमा के उल्लंघन नहीं कर रहे हैं। प्रश्न नीति निर्धारण का नहीं है, अपितु संवेदनहीनता तथा कर्त्तव्य के प्रति उदासीनता का है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनाज की बेकद्री पर जो टिप्पणी की है अथवा निर्देशन दिया है उसके बाद भी यदि भूख से मौत होती है, तो उसके लिए केन्द्र सरकार ही उत्तरदायी होगी।
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--- ( साभारः दैनिक राष्ट्रदूत 8 सितम्बर 10 ) ---

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