Thursday, October 28, 2010

अयोध्या निर्णय : गुनाह करो और इनाम पाओ !

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच की तीन जजों की पीठ ने अयोध्या मामले में 30 सितम्बर 2010 को फैसला सुनाया। आशंकाओं के विपरीत, उस दिन और उसके बाद देश में कहीं हिंसा नहीं हुई। इसका श्रेय आमजनों की परिपक्व सोच को जाता है। किन्तु, जहां तक इस निर्णय का सवाल है तो यह फैसला तीनों ही संबंधित पक्षकारों यथा-रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड-के बीच संतुलन कायम करने की कवायद के सिवाय कुछ नहीं है, जिसमें विवादित भूमि को तीन भागों में बांट दिया गया है और तीनों पक्षकारों को बराबर-बराबर जमीन दे दी गई है। अपने इस फैसले मेें अदालत ने यह भी कहा है कि चूंकि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार बाबरी मस्जिद के बीच के गुंबद के ठीक नीचे भगवान राम का जन्मस्थल है इसलिए वह हिस्सा हिन्दुओं को दिया जाना चाहिए। इस फैसले से उत्साहित बने आरएसएस प्रमुख ने घोषणा की है कि अब विवादित भूमि पर भव्य राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया है और इस ‘राष्ट्रीय कार्य’ में सभी पक्षों को अपना सहयोग देना चाहिए।
यों इस मामले में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव द्वारा व्यक्त की गई प्रतिक्रिया ठीक ही है कि- इस फैसले से मुसलमान अपने आपको ठगे से महसूस कर रहे हैं। लेकिन, जिसे ‘राजनीतिक लाभ’ प्राप्ति का रूप दे दिया गया है। आखिर, इस सचाई पर टिप्पणी एक राजनेता ने जाहिर की है, जो अन्य राजनेताओं को हजम नहीं हो पा रही है। जबकि, इस विवाद से जुड़ा हुआ मुख्य विवाद और विचार करने की बात यह है कि- पहले तो उस मस्जिद में रात के अंधेरे में कुछ शरारती तत्व जबरदस्ती घुसकर रामलला की मूर्तियां स्थापित कर देते हैं। फिर, एक योजनाबद्ध षड़यंत्र के तहत संघ परिवार उस मस्जिद को ही जमींदोज कर देता है। और अब, न्यायालय ने संघ के इस विध्वंसकारी दावे पर ही अपनी मोहर लगा दी है कि भगवान राम उसी स्थल पर जन्मे थे! ऐसा लगता है कि इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन में रत अध्येता अपना समय और उर्जा बर्बाद कर रहे हैं, क्योंकि उनके ज्ञान की किसी को कोई जरूरत ही नहीं है। आखिर, इस फैसले से यही तो साबित हो रहा है कि इतिहास और पुरातत्व विज्ञान चाहे कुछ भी कहता रहे, कोई महत्व नहीं रखता। क्योंकि कोई भी राजनैतिक शक्ति, किसी भी आधारहीन तथ्य को आस्था का जामा पहना देगी और फिर उस आस्था के अनुरूप गैर-कानूनी कार्य करेगी तथा अंततः अदालत भी उसके इन आपराधिक कृत्यों को इस आधार पर सही ठहरा देगी कि- वे समाज के एक हिस्से की आस्था पर आधारित हैं! इस देश के जो नागरिक हमारे स्वाधीनता संग्राम और भारतीय संविधान के मूल्यों में आस्था रखते हैं, उनके लिए निश्चित ही यह अकल्पनीय है कि- देश की कोई अदालत इस तरह का निर्णय भी दे सकती है।
संघ परिवार ने सन् 1980 के दशक में राममंदिर आंदोलन का पल्ला थामा और उसने योजनाबद्ध (जिसे साजिश कहना उचित होगा) तरीके से हिन्दुओं के एक तबके को यह विश्वास दिला दिया कि भगवान राम ठीक उसी स्थल पर पैदा हुए थे जहां बाबरी मस्जिद स्थित थी। जबकि इसमें दिलचस्प बात यह है कि चन्द सदियों पहले तक राम, हिन्दुओं के प्रमुख देवता नहीं  थे। वे मध्यकाल में प्रमुख हिन्दू देवता बने, विशेषकर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की कहानी को सामान्य जनों की भाषा अवधी में प्रस्तुत करने के बाद। तब तक वाल्मिकी की संस्कृत रामायण प्रचलन में थी और चूंकि संस्कृत श्रेष्ठि वर्ग की भाषा थी इसलिए राम के पूजकों की संख्या भी अत्यन्त ही सीमित थी। तब के ब्राह्मण भी तुलसीदास से बहुत नाराज थे क्योंकि उन्होंने ब्राह्मणों की देवभाषा संस्कृत की जगह जनभाषा अवधी में रामकथा को लिखा। विचारणीय यह भी है कि जिस समय विवादित भूमि पर स्थित कथित राम मंदिर को तोड़ा गया था उस समय तुलसीदास की आयु लगभग 30 वर्ष रही होगी। तो क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि- तुलसी जैसे अनन्य रामभक्त द्वारा अपनी इस ‘रामकथा’ में कहीं भी इस बात की चर्चा तक नहीं की गई कि उनके आराध्य के जन्मस्थल पर बने मंदिर को एक आतातायी बादशाह ने गिरा दिया है!
यह साफ है कि शासक-चाहे वे किसी भी धर्म के रहे हों-केवल सत्ता और संपत्ति के उपासक थे। कई मौकों पर वे युद्ध में पराजित राजा को अपमानित करने के लिए उसके राज्य में स्थित पवित्र धर्मस्थलों को भी नष्ट कर देते थे परंतु इसके पीछे केवल राजनीति होती थी, धर्म नहीं। लेकिन अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत इतिहास की इन घटनाआंे को इस रूप में प्रस्तुत किया कि- मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू धर्म का अपमान करने के लिए हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त किया। अंग्रेजी लेखकों द्वारा साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से लिखे गए इसी इतिहास ने दोनों समुदायों को एक दूसरे का शत्रु बना दिया और यही बैरभाव आगे जाकर साम्प्रदायिक हिंसा का कारण बना। बाबरी मस्जिद एक संरक्षित स्मारक थी जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की थी। लेकिन, भारत सरकार न तो वर्ष 1949 में वहां गैरकानूनी ढंग से स्थापित रामलला की मूर्तियों को हटवा सकी और न ही वर्ष 1992 में ही मस्जिद पर संघ परिवार के हमले को रोक सकी। भारत सरकार की ये दो बड़ी असफलताएं थी और दुर्भाग्य से ये दोनों ही असफलताएं कांग्रेस शासन के समय में ही घटित हुई। ऐसे में, निश्चित ही अयोध्या मामले में हुए हालिया निर्णय से देश को साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकृत करने के आरएसएस के एजेन्डे को ही बढ़ावा मिलेगा। इस निर्णय ने जहां एक ओर रामलला की मूर्तियों की स्थापना को कानूनी वैधता प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के अपराध को नजरअंदाज भी किया है। इस तरह से न्यायालय की ओर से संघ परिवार को अपने गुनाहों का शानदार इनाम मिला है।
वहीं, अब आरएसएस और उसके बाल-बच्चे यही कह रहे हैं कि मुसलमानों को अपने हिस्से की जमीन हिन्दुओं को सौंप देनी चाहिए ताकि  वहां पर भव्य राम मंदिर बनाकर ‘राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं’ की पूर्ति की जा सके। जबकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि- भारतीय राष्ट्र, केवल हिन्दुओं का ही नहीं है। वहीं, सभी हिन्दू भी इस बात में विश्वास नहीं करते कि- विवादित स्थल ही भगवान राम की जन्मभूमि है और न ही सभी हिन्दू वहां राममंदिर बना देखना चाहते हैं। क्योंकि अधिकांश हिन्दू इस मंदिर-मस्जिद के मुद्दे से दूर ही रहे हैं और उन्हें अत्यन्त क्षोभ है कि आरएसएस ने भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए आम हिन्दुओं की राम में बनी हुई आस्था का दुरूपयोग ही किया है। जब से राम मंदिर चुनावी मुद्दा बना, हिन्दुओं की बहुसंख्या ने कभी राम मंदिर के एजेन्डे का समर्थन नहीं किया। हिन्दुओं का एक तबका अवश्य राम मंदिर का समर्थक है परंतु विभिन्न चुनावों के परिणामों से साफ हो चुका है कि बहुसंख्यक हिन्दू, संघ द्वारा भाजपा के लिए निर्धारित किये हुए राम मंदिर के एजेन्डे के साथ नहीं हैं। हाल ही में किए गए कुछ सर्वेक्षणों से भी यह सामने आया है कि- हिन्दुआंें के एक बहुत छोटे से हिस्से के लिए यह ‘राम मंदिर’ एक मुद्दा है। जबकि युवा पीढ़ी को तो राम मंदिर विवाद से कोई लेना-देना ही नहीं है, विशेषकर ऐसे राम मंदिर से जिसे देश पर दो अपराधों के जरिए थोपा जा रहा हो।
वहीं, अब कांग्रेस भी इस मुद्दे को मिल-बैठकर सुलझाने की बात कर रही है। जबकि संवाद के जरिए इस मुद्दे का किस तरह से क्या हल निकाला जा सकता है? - यह भी विचारणीय बात है। पहली बात तो यह है कि कोई भी हल न्यायपूर्ण होना चाहिए और उसमें सभी संबंधित पक्षकारों के अधिकारों को मान्यता मिलनी चाहिए। क्या कोई भी समझौता केवल लेन-देन के आधार पर ही हो सकता है? लेकिन जो लोग मुस्लिम समुदाय से सहयोग और समझौता करने के लिए कह रहे हैं, क्या वे यह वायदा कर सकते हैं कि उसके बाद देश में मुसलमानों को सुरक्षा और समानता मिलेगी? मुस्लिम समुदाय जो सामाजिक-आर्थिक मानकों पर पिछड़ता जा रहा है, तब क्या सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोग की रपटें बिना किसी देरी के लागू की जाएंगी? क्या आरएसएस राम मंदिर के बदले ये सब देने को तैयार है? क्या इसके बाद भारत मंे मुसलमान महफूज रहेंगे? विचारणीय तो यह भी है कि- मुसलमान भारत की आबादी का केवल 13.4 प्रतिशत हैं, जबकि दंगों में मारे जाने वालों में से 80 प्रतिशत मुसलमान ही होते हैं, आखिर क्यों? ऐसे में, क्या मुसलमानों के सहयोग से अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने के बाद आरएसएस अपने शिशु मंदिरों में मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने वाली पाठ्पुस्तकें पढ़ाना बंद कर देगा? ये वे मुख्य सवाल हैं जिनका जवाब आरएसएस और इसके विभिन्न शिशु संगठनों को खुले रूप से व साफ मन से देना होगा।
यों, इस तरह के समझौते में कोई समस्या भी नहीं है। बल्कि, यह तो बहुत ही अच्छा होगा कि अयोध्या में राम मंदिर के बदले ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों को देश मंे समानता का दर्जा मिल जाएऋ उनके खिलाफ किया जा रहा आधारहीन दुष्प्रचार बंद हो जाए और सरकार भी मनमोहन सिंह के इस वायदे पर अमल करने को तैयार हो जाए कि देश के संसाधनों पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों का पहला हक है। लेकिन सवाल यह भी है कि- क्या राम मंदिर बनाने में सहयोग किये जाने के बदले साम्प्रदायिक दंगों के दोषियों को सजा मिलना सुनिश्चित किया जा सकेगा? दिल्ली के सिक्ख विरोधी दंगों और मुंबई व गुजरात की मुस्लिम विरोधी हिंसा के लिए दोषी व्यक्ति, जो आज भी छाती फुलाए घूम रहे हैं, क्या उनको उनके कुकर्मों की सजा दिलवाना, उस ‘बातचीत’ से निकाले जाने वाले हल का भाग होगा? क्या मुसलमानों से त्याग की अपेक्षा करने के पहले भारतीय राज्य उन्हें यह गारंटी नहीं देना चाहेगा कि देश मंे कानून का राज रहेगा और उन्हेें पूरी सुरक्षा और आगे बढ़ने के समान अवसर मिलेंगे?
यह साफ है कि राम मंदिर के मुद्दे का इस्तेमाल भारतीय संविधान की आत्मा को आहत करने और विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव को खत्म करने के लिए किया जाता रहा है। अल्पसंख्यकों से त्याग करने की अपील तो हम सब कर सकते हैं, जबकि हम सभी को यह भी मालूम है कि उन्हें इस त्याग के बदले कुछ नहीं मिलेगा। साम्प्रदायिकता हमारे देश की सामूहिक सोच में इतनी मजबूत जड़ें जमा चुकी है कि मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। हिन्दू राष्ट्र के पैरोकार व हिन्दुत्व की राजनीति के झंडाबरदार, कभी भी मुसलमानों को शांति और गरिमा से नहीं रहने रहने देना चाहते। वहीं, संघ परिवार के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताएं कम महत्वपूर्ण हैं और अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए राम मंदिर, राम सेतु, गौ-हत्या आदि जैसे काल्पनिक मुद्दे अधिक।
यह सचमुच ही अत्यन्त दुःखद है कि समाज और राजनीति का इस हद तक साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है कि एक राजनैतिक धारा-विशेष द्वारा प्रायोजित ‘आस्था’, अब न्यायिक निर्णयों का आधार बन रही है। इसलिए यह भारत के लिए एक बहुत ही बुरा दिन है। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि युवा पीढ़ी और वे सब जो भारतीय संविधान में विश्वास करते हैं, संकीर्ण पहचान की राजनीति से दूरी बनाएंगे, उस राजनीति से जो धार्मिक आस्था को सत्ता तक पहुंचने का शार्टकट बनाना चाहती है। हमंे उम्मीद है कि हम ऐसे समाज को बनाने में सफल हांेगे जहां सबको न्याय मिलेगा और समाज के पिछड़े वर्गों के साथ विशेष रियायत बरती जाएगी।

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

-  डा. राम पुनियानी
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