Wednesday, October 27, 2010

स्मृति-शेष :: दिवंगत कॉमरेड शिवराम जी को भाव्यांजलि

५ और २० अक्टूबर के अंक में प्रकाशित
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‘शिवरामजी नहीं रहे’ - अभी भी विश्वास नहीं होता। विश्वास हो भी तो क्यों हों? नाम के भी बीमार नहीं, परिवार की ओर से भी कोई तनाव नहीं, अन्य कोई आम जीवन संबंधी समस्या भी नहीं। समय के सफ़र के साथ ही पूरे ओज़-ज़ोश के साथ ज़ीवन का सफ़र भी चल रहा था। चल क्या रहा था, अपनी गति के साथ मंद-मंद मुस्कान लिये बह रहा था। चेहरे पर हर पल बनी रहने वाली ‘मुस्कान’, जो मात्र ‘मुस्कान’ ही नहीं थी बल्कि एक संदेश था- ‘जीवन का नाम ही संघर्ष हैं और संघर्ष से कभी डरना नहीं है, इसी का नाम ‘जीवन-सफ़र’ है।’ यानि- जीवन भी एक ‘एडवेन्चर’ ही है और शिवरामजी ने इस जीवनरूपी एडवेन्चर को भरपूर जीया, हर पल जीया। शिवरामजी एक ‘छलिया’ भी थे, जो हताश-निराश इंसान को पूरे विश्वास के साथ जीवटता प्रदान करने और विरोधी को भी पूरी आत्मीयता के साथ अपना बना लेने की ‘छलिया कला’ में पारंगत थे। आखिर- मार्क्सवादी चिंतक व साहित्यकर्मी होने के साथ ही वह नाट्यकर्मी भी जो थे। तभी तो, अचानक ही हम सब को ‘छलकर’ हम सबका यह प्रिय व आत्मीय ‘छलिया कलाकार’ बेफिक्री के साथ चला गया और छोड़ गया सब आत्मीयजनों को शोकाकुल करता, बिलखता व अचम्भित करता हुआ। 
कोई कह रहा है अभी आधे घंटे पहले ही मिलकर गया है, दुबारा मिलने आने के लिए। कोई कह रहा है अभी कुछ समय पहले मध्यान्ह का लंच साथ ही लिया था। मैं भी तो यही कह रहा हूं कि वह (जिन्हें हम ताऊजी कहते थे लेकिन वह सदा ही हम बच्चों के साथ हमउम्र बनकर ही बात किया करते थे) ‘कल’ (30 सितम्बर, गुरूवार को) ही तो मेरे पास आये थे अपनी प्रकाशित होने वाली पुस्तकों की सामग्री का फ्रुफ चेक करने और फ्रुफ चेक कर व कुछ देर बतियाते हुए ‘कल’ (1 अक्टूबर, शुक्रवार को) फिर आने की कहकर गये थे। लेकिन उसी ‘कल’ को यानि 1 अक्टूबर शुक्रवार को मध्यान्ह बाद करीब 4.30 बजे युवा कवि व पत्रकार ओम नागर ‘अश्क’ ने पापाजी जीनगर दुर्गाशंकर जी गहलोत को यह सूचना दी कि ‘शिवरामजी नहीं रहे’। अचम्भित करते हुए तुरंत ही रूला गया था पापाजी को यह समाचार। क्योंकि ठीक एक वर्ष पहले ही 29 सितम्बर 2009 मंगलवार की शाम को करीब 6.30 बजे भी पापाजी को एक ऐसा ही अचम्भित व शोकाकुल कर देने वाला समाचार मिला था। उस दिन उनके भाई-दोस्त-गुरू यानि दो शरीर व एक आत्मा कहे जाने वाले दरगाह अधरशिला के जॉ-नशीन बाबा सिद्दीक अली सा. (जिन्हें हम चाचाजी कहते व मानते हैं) के इंतकाल (निधन) का उनको अचानक समाचार मिला। उस आकस्मिक घटना को पापाजी अभी तक भी नहीं भूले हैं और वैसी ही घटना ठीक एक साल बाद शिवरामजी के निधन की फिर घटित हो गई। ‘जीवन का सच ही मौत है’ यह बात पापाजी हमेशा कहते रहते हैं, लेकिन इन दो आकस्मिक मौतों ने तो पापाजी जैसे जीवट इंसान में भी थर्र-थराहट पैदा कर दी। 
आखिर, पापाजी ने इस समाचार पर डरते-सहमते मुझसे पूछा और चाचाजी परमानंद जी कौशिक (एलआईसी में सेवारत) से पूछा। तब तक अंकल महेन्द्र जी नेह व शकूर अनवर जी इस शोक समाचार को टाइप कराने मेरे पास आ चुके थे। विश्वास तो नहीं था, लेकिन सच भी यही था इसलिए विश्वास तो करना ही था। त्रिमूर्ति कहे जाने वाले शिवराम जी, महेन्द्र नेह जी व शकूर अनवर जी के तीन शरीर व एक आत्मा में से एक मूर्ति अचानक ही विलीन हो गई उस अनजाने सफ़र पर, जिसे आज तक न तो कोई देख ही सका है और न ही समझ सका है। पापाजी तो शिवरामजी के चिर-परिचित श्री सुरेश पंडित सा. (अलवर) और श्री वेद व्यास सा. (जयपुर) तक को सूचित करने का साहस नहीं कर सकंे। शाम को अलवर से ही पंडित सा. का फोन आने के बाद ही वह जयपुर व्यास सा. से बात कर सकें। अलवर पंडित सा. को जम्मू से शैलेन्द्र जी चौहान ने और जयपुर व्यास सा. को कोटा से ओमजी नागर ‘अश्क’ ने सूचित कर दिया था। मैं भी ‘कल’ में अपने कार्यस्थल पर इंतजार ही करता रहा शिवरामजी का, लेकिन वह नहीं आए और आया तो उनके अंतिम सफ़र का समाचार। शायद इसे ही नियति और विधि का विधान कहते हैं। यही वह नियति व विधान है जिसकी ताकत को ‘नास्तिक’ बने हुए इंसानों को भी मानना ही पड़ता है, फिर हम तो आस्तिक है। 
अगले दिन 2 अक्टूबर शनिवार को यानि समूचे विश्व के अहिंसा के पुजारी कहे जाने वाले महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर कॉमरेड शिवरामजी को किशोरपुरा (चम्बल गॉर्डन के पास) स्थित श्मशान घाट (जिसे मुक्ति धाम, मोक्ष घाट व मोक्ष द्वार भी कहा जाता है) पर असंख्य आत्मीयजनों की मौजूदगी में ‘कॉमरेड शिवराम-लाल सलाम’, ‘कॉमरेड शिवराम-अमर रहे’, ‘जब तक सूरज-चांद रहेगा-कॉमरेड शिवराम याद रहेंगे’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के गंुजायमान नारों के साथ उनके तीनों सुपुत्रों रविकुमार, शशिकुमार व पवनकुमार ने अश्रुपूरित नेत्रों से पिता शिवरामजी का अग्निदाह कर अपने पितृऋण का निर्वहन किया। लेकिन, शरीर से विदा हुए शिवरामजी अपने आत्मीयजनों की आत्माओं व स्मृतियों में सदैव ही ‘स्मृति शेष’ के रूप में हर घड़ी, हर पल मौजूद हैं और रहेंगे, यही मेरा मानना है और विश्वास भी है। तभी तो, उनको अर्पित की जाने वाली श्रद्धांजलियों व भाव्यांजलियों का दौर अभी भी जारी है और जारी रहेगा जीवन-पर्यन्त किसी ना किसी रूप-प्रतिरूप में। इसे भी एक संयोग ही कहा जायेगा- 30 सितम्बर 2010 गुरूवार को अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला, 1 अक्टूबर 2010 शुक्रवार को चिंतक व विचारक शिवरामजी का निधन, और 2 अक्टूबर 2010 शनिवार को महात्मा गांधी के जन्म दिवस को शिवरामजी की अंतिम विदाई। 
उम्मीद है कि अब उनके तीनों सुयोग्य पुत्र रवि, शशि व पवन अपने दिवंगत पिता श्री शिवरामजी रूपी अनुपम व अद्भुत विरासत को उनकी सोच व आशा के अनुरूप जीवन्तता प्रदान कर उसे अनवरत जारी रखेंगे। और, इसमें इनके सहभागी व सहयोगी बन अपने कर्त्तव्य दायित्व का निर्वहन करें शिवरामजी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले सभी सहयोगीजन। क्योंकि- ‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है / बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’ वैसे, वह स्वयं ‘स्मृति-शेष’ तो बन ही चुके हैं। आख़िर में, समूची मानवता और मानव जाति के सबसे ज्यादा वंचित वर्गों पर हो रहे जुल्मों के प्रतिवाद में अपना सारा जीवन लगा देने वाले इंसानों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वहारा वर्ग के महाकवि ज़नाब फैज़ अहमद फैज़ सा. की लिखी गई इन पंक्तियों के साथ मैं नन्हीं सी जान सम्मानीय दिवंगत शिवरामजी को नमन करते हुए अपनी भावनाओं को विराम दे रहा हूँ - ‘‘चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ / ज़ुल्म की छॉव में दम लेने पर मजबूर हैं हम / इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें / अपने अज़दाद की मीरास है माज़ूर  हैं हम / ज़िस्म  पर कै़द है जज़्बात पे जंजीरे हैं / फ़िक्ऱ महबूस है गुफ़्तार पे ताजिरे हैं / और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं।’’

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