Thursday, October 28, 2010

हमें हिंसा नहीं चाहिए

लोकचेतना में राम के नाम को आस्था का सत्य माना जाता है तो अहिंसा को परमधर्म कहा जाता है और प्रड्डति को न्याय का पर्याय समझा जाता है। लेकिन मनुष्य के समय का इतिहास बताता है कि सत्य का सपना देखने के लिये सुकरात को ज़्ाहर का प्याला पीना पड़ा था, तो अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए महात्मा गांधी को गोलियां खानी पड़ी थी और प्रकृति में न्याय को खोजते हुए ईसा मसीह को सूली पर चढ़ने के लिये खुद अपना सलीब ढोना पड़ा था। इस तरह गांधी और गोली का, भगतसिंह और फांसी का तथा लोकतंत्र और हिंसा का सदियों पुराना चोली-दामन का रिश्ता है। ऐसे में स्वतंत्र भारत के लोकराज में महात्मा गांधी की शहादत हमारी स्मृतियों की सबसे बड़ी हिंसा है। इसलिये हिंसा और अहिंसा, सत्य और असत्य तथा न्याय और अन्याय भी मनुष्य और प्रड्डति की सभ्यता के अभिन्न अंग है और राज्य व्यवस्था की संगठित हिंसा को भी कानून और प्रशासन की अनिवार्यता कहा जाता है। जिस तरह राजा की हिंसा को समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये प्रायः कानून सम्मत ठहराया जाता है उसी तरह बादशाह और सम्राट की हिंसा को भी समय और शासन की आवश्यकता ही घोषित किया जाता है। महात्मा गांधी को एक कट्टरवादी हिन्दू ने गोली मारी थी और इन्दिरा गांधी को भी एक धार्मिक आस्थावादी ने ही गोली मारी थी, तो राजीव गांधी को भी एक तमिल मुक्ति सैनिक ने ही हताहत किया था।
इस तरह की सभी हिंसक घटनायें देखकर हमारे मन में यह सवाल भी आता है कि आखिरकार इस हिंसा का औचित्य क्या है और यहां हिंसा का विकल्प किसी अहिंसा को कभी क्यों नहीं समझा गया? इतिहास का अनुभव भी यही बताता है कि तानाशाही और अधिनायकवादी शासन ही निहत्थे आम आदमी पर जब चाहे तब गोलियां चलवाता है। लेकिन लोकतंत्र में हिंसक गोलीबारी का बढ़ता पागलपन भी हमें यही सीख देता है कि शांति के लिये जिस तरह युद्ध जरूरी है, उसी तरह न्याय के लिये भी शायद जोर, जुल्म और दमन आवश्यक है! और, हर आदमी भी अपनी-अपनी बंदूक से न्याय के नाम पर करते हिंसा को अपनी प्रतिरक्षा कह रहा है! लेकिन, मनुष्य के भीतर बैठी इस नकारात्मक और सकारात्मक सोच को अनवरत युद्ध और शांति के लिये संघर्ष करते हुए देखकर मुझे लगता है कि- जब तक हिंसा रहेगी, तब तक अहिंसा के मंत्र भी दोहराते जायेंगे तथा गांधी और गोली की प्रांसगिकता पर भी बहस चलती रहेगी। आज मुझे तो कुछ ऐसा भी लगता है कि- महात्मा गांधी की अहिंसा और भगतसिंह की हिंसा दोनों ही न्याय और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये थी तथा दोनों ही अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ थी और अनिवार्य थी। अतः हिंसा और अहिंसा का प्रतिफल ही हमारी यह आज़्ाादी है।
लेकिन, हमारे अपने लोकतंत्र में हिंसा को किसी भी न्याय और सत्य का विकल्प कभी इसलिये नहीं कहा जा सकता क्योंकि हिंसा बढ़ाने वाली और फैलाने वाली राज्य व्यवस्था का जन्म भी हम भारत के नागरिकों की कोख से ही होता है। किन्तु, लोकतंत्र में हिंसा को हथियार बनाकर राज्य व्यवस्था को चुनौती देने पर यह प्रश्न भी मन में आता है कि- क्या आम नागरिक के न्याय और सत्य को खोजने व पाने के सभी रास्ते बंद हो गये हैं? और, क्या राज्य व्यवस्था का पूरा स्वरूप इतना भ्रष्ट और भेदभावपूर्ण हो चुका है कि- असहाय आम आदमी को अस्त्र-शस्त्र उठाने पड़ें? भारत में आजादी के 64 साल महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा को ठुकरा देने वाली लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को आज यह सोचना चाहिए कि - कश्मीर में अलगाववाद की हिंसा क्यों बढ़ रही है? - झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, पश्चिमी बंगाल, बिहार और आंध्रप्रदेश के आदिवासी जंगलों में नक्सलवादी और माओवादी हिंसा क्यों फैल रही है? - मणिपुर, असम, नागालैण्ड और मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में सशस्त्र उग्रवाद क्यों जारी है? तथा, अनेक राज्यों में कट्टर हिन्दुवाद और कट्टर मुस्लिमवाद के बीच साम्प्रदायिक हिंसक झड़पें क्यों हो रही हैं? आखिर, इन झगड़ों की जड़ में क्या है? और लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था इस हिंसा को केवल कानून और व्यवस्था का हिस्सा ही क्यों मान रही है तथा हिंसा का जवाब ‘संगठित हिंसा’ से ही क्यों दे रही है?
क्या कश्मीर की हिंसा पर सर्वदलीय पहल करने की तरह नक्सलवादी और साम्प्रदायिक हिंसा पर भी सर्वदलीय पहल नहीं की जा सकती? आप कभी यह भी तो सोचें कि- स्वतंत्र भारत के इतिहास में आज हिंसा का कोई भी विकल्प अब महात्मा गांधी की अहिंसा को आगे रखकर कोई भी नहीं ढूंढ रहा है। आज मार्क्सवादी और गांधीवादी सभी एक ही भेड़ चाल में प्रतिरोध को हिंसा से कुचल रहे हैं और अपने बल प्रयोग को अपने संविधान व व्यवस्थाओं का एक मात्र रक्षक भी बता रहे हैं। यही कारण है कि गांधीजी को अपना प्रणेता कहने वाली सरकार भी लगातार हिंसा का विकल्प सशस्त्र बलों में ही खोज रही है तथा गांधीजी की अहिंसा और सत्य के प्रयोग अब कोई नहीं कर रहा है। मुझे तो यह लगता है कि भारत की लोक आत्मा तो अहिंसक है लेकिन इसकी राज्य व्यवस्था पूरी तरह महाजनी (पूंजीवादी) सभ्यता की ढांचागत संगठित हिंसा पर ही आधारित है। इसीलिये आप हमें आज कोई एक भी किसी ऐसे राजनैतिक दल की राज्य और केन्द्र सरकार नहीं बता सकते कि- जिसने कभी हिंसा को अहिंसा से हराया हो और महात्मा गांधी का गौरव बढ़ाया हो। ऐसे में, अनादिकाल से राज्य व्यवस्था का मूल स्वर हिंसा ही है और दुनिया में एक भी देश (जापान के अलावा) ऐसा नहीं है जिसकी कि कोई फौज-सेना नहीं हो।
इसीलिये सभी धर्म व जातीय समाजों में कट्टरवादी व उदारवादी विचारधाराओं के बीच हजारों साल से हिंसा और अहिंसा का धर्मयुद्ध चल रहा है तथा एक के मन का भय ही दूसरे के मन के भय को साम, दाम, दण्ड, भेद से छलरहा है। महात्मा गांधी इसी कारण बहुसंख्यक बने हुए अहिंसक कहे जाने वाले समाज के बीच रहकर भी भयभीत अवस्था में हिंसक कहे जाने वाले अल्पसंख्यकों को देख रहे हैं और आप-हम राज्य व्यवस्था की हिंसा को रोज ख़बरों की तरह पढ़ रहे हैं। इसीलिये स्थिति यह बनी हुई है कि आए-दिन होने वाली हिंसा अब कोई कौतुहल और आश्चर्य हमारे मन में पैदा नहीं करती। इसलिए, महात्मा गांधी को याद करते हुए आज हमें इस कटु सत्य पर भी जरूर विचार करना चाहिए कि- शांति के कबूतर उड़ाने वाले देश में हिंसा का मूल क्या है? गौतम बुद्ध और महावीर के समाज में हिंसक गिरोह और सेनाओं के हस्तक्षेप का क्या मतलब है? हिंसा की राजनीति कौन, किसके लिए कर रहा है? और, सरकारी बंदूकों से आम आदमी ही हर बार क्यों मर रहा है? गरीब भारत और अमीर भारत के बीच एक हिंसक शीतयुद्ध क्यों चल रहा है? तथा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के जुआघर में आम आदमी का ही चीरहरण क्यों हो रहा है? हर बार गांधीजी की सत्य और अहिंसा ही संगठित हिंसा के निशाने पर क्यों है? तथा, क्या हमारी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के पास आम आदमी से संवाद और सुलह-सफाई का कोई दूसरा रास्ता अब शेष नहीं है?
ऐसे में, आने वाले समय और समाज के पास महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्य का अब कोई विकल्प नहीं होगा। क्योंकि धीरे-धीरे लोग हिंसा करते करते भी थक रहे हैं और चिर शांति के लिये अब उन्हें फिर से किसी ‘अहिंसा के मसीहा’ की तलाश है। क्योंकि केवल भौतिक विकास और लोकतंत्र ही 21वीं शताब्दी में किसी सत्य, अहिंसा और न्याय की पक्की गारन्टी नहीं है और लोकतंत्र में राज्य व्यवस्थाओं का विकास और विनाश भी इस संगठित और सामाजिक-आर्थिक ढांचागत हिंसा में ही छिपा है। इसलिए, एक गतिशील और परिवर्तनशील भारतीय समाज मंे महात्मा गांधी ही आज आम आदमी का अब अंतिम और आध्यात्मिक विकल्प है। अतः हमें भारत के शांतिप्रिय समाज से इस हिंसा का यह ज़हर निकालना ही होगा तथा महात्मा गांधी और भगतसिंह दोनों की शहादत को समझना ही होगा।


- वेद व्यास
‘भाईचारा फाउन्डेशन’
7/122, मालवीय नगर, जयपुर (राज.)
मो. : 94140-54400

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