Thursday, October 28, 2010

हिन्दुत्व के सवालों को लिए हुए दलित कारसेवक की व्यथा-कथा

अयोध्या में राम मंदिर पर फैसले की घड़ी नजदीक आई तो उसको याद आया कि वो भी एक हिंदू कारसेवक था और मंदिर के लिए अयोध्या तक गया था। मगर अब वो महज एक दलित है। तब अयोध्या में विवादित ढांचा टूटा था, लेकिन विश्व हिंदू परिषद् के सक्रिय कार्यकर्ता रहे जयपुर जिले के चकवड़ा गांव के हरिशंकर बैरवा जब अपने गाँव लौटे और जो कुछ देखा, तो उससे उनका दिल टूट गया। उन्हें सहसा याद दिलाया गया कि वो महज एक दलित हैं, वो हिंदू तो हैं, मगर दर्जे से दोयम हैं। इसीलिए टूटे हुए दिल के हरिशंकर कहते है, ‘‘फिर मंदिर के लिए कार सेवा का आव्हान हुआ तो वो खुद तो क्या कोई भी दलित अयोध्या का रुख नहीं करेगा’’। हरिशंकर कारसेवक के रूप में चकवड़ा से गए कोई 10 लोगों के जत्थे में अकेले दलित थे। वो कहने लगे, ‘‘हम वहाँ मर भी सकते थे। गोलियाँ चली, कई लोग जख्मी हुए थे, पकड़े गए तो 15 दिन बुलंदशहर जेल में भी रहे। तब यही बताया गया कि हम सब हिंदू हैं, न कोई ऊंच है न नीच। पर ये सब फरेब ही था।’’
‘‘वो सिर्फ हिंदू-मुसलमानों की बात करते हैं. मगर जब दलित के साथ जुल्म की बात आती है तो वो चुप हो जाते हैं.’’ 
- हरीशंकर चकवड़ा, जयपुर 
तूफान
हरिशंकर की जिंदगी में यह तूफान तब आया जब गाँव के साझा तालाब में दलितों ने सदियों पुरानी उस परंपरा को बहुत सरल भाव से तोड़ने का प्रयास किया जिसमें दलित के लिए अलग घाट बना हुआ था। उनका कहना था, ‘‘उस दिन ‘सब हिंदू बराबर है’ की मानस पर अंकित तस्वीर टुकड़े-टुकड़े हो गई, जब हम पर जुर्माना लगाया गया, हमें अपमानित किया गया, हम पर हमले के लिए हिंदुओं की भीड़ जमा हुई और तालाब में दलितों के घाट से अलग पानी लेने पर गंभीर परिणामों की चेतावनी दी गई।’’ उस दिन मेरा मन बार-बार ये ही पूछता रहा- ‘‘क्या हम हिंदू नहीं है? अगर हिंदू हैं तो फिर ये सलूक क्यों?’’ ये सवाल उठाते हुए हरिशंकर के चेहरे पर कई भाव चढे़ व उतरे। वो कहने लगे, ‘‘एक विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता के नाते मैं अभिभूत था। लगा अभी साधु संत आएंगे, अभी प्रवीण तोगड़िया जी आएंगे। हम उन तक गए, गुहार भी की। मगर दलित के लिए कौन बोलता? क्योंकि वो तो कहने के लिए ही हिंदू हैं।’’
कभी हरिशंकर भी  ‘सौगंध राम की खाते हैं’ के नारे लगाते थे, मगर अब उनके घर में बने हुए एक संकुचित से पूजा घर में राजस्थान के लोक देवता रामदेव, गौतम बुद्ध और अम्बेडकर सबसे बड़े भगवान हैं। मैंने पूछा आरएसएस से कब से जुड़े हो? तो वे मुझे अतीत में ले गए, ‘‘आरएसएस में बचपन से ही जाना शुरू किया। वहां हमें बताया गया कि पूरे समाज को समरस बनाना है। मुझे ये ठीक लगा। फिर मंदिर का मुद्दा आया। हमें विहिप ने बताया कि अपने हिंदुओं के मंदिर पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया, उसे मुक्त कराना है। हम ये ही सोचकर गए कि सब हिंदू सामान है, सब भाई हैं।’’ फिर ऐसा क्या हुआ कि वो अब विरोध में खड़े है? क्या उनको बहका दिया है...? 
हरिशंकर कहते हैं, ‘‘जब तालाब से पानी की बात आई तो मैंने इनके व्यवहार में फर्क देखा। मैं विहिप के नेताओं के पास गया कि दलितों के साथ बुरा सलूक हो रहा है, मगर उन्होंने कोई रुचि नहीं ली। दलितों के साथ कदम-कदम पर भेदभाव होता है, उन्हें मंदिर में नहीं जाने दिया जाता, उनकी शादियों में बारात पर हमले होते है, विवाह में बैंड बाजे नहीं बजाने देते - ये बात कई बार मैंने विहिप की बैठकों में उठाई, पर किसी ने रूचि नहीं ली।’’
वो कहते हैं, ‘‘वो सिर्फ हिंदू-मुसलमानों की बात करते हैं. मगर जब दलित के साथ जुल्म की बात आती है तो वो चुप हो जाते हैं. हम पर विपत्ति आई तो गांव में विहिप समर्थक 50 लोग थे, या तो वे खामोश थे या भागीदार थे। मैंने विहिप वालों से कहा ये ठीक नहीं है, हम हिंदू धर्म से अलग हो जाएंगे।’’ जबकि, दूसरी ओर हिंदू संगठन अपनी इस असलियत को छिपाने के लिए कहते हैं कि इन दलितों को किसी ने बहका दिया है। वहीं, साधु-संत और धर्मग्रंथ कहते हैं कि न कोई ऊँचा है न कोई नीचा, यानि ‘हरी को भजे सो हरी का होय।’ मगर ये शायद जिंदगी का यथार्थ नहीं है। न जाने क्यों जब भी कोई दलित मंदिर की देहरी चढ़ता है या फिर पोखर, तालाब, और कुएँ पर प्यास बुझाने के लिए हाथ बढ़ाता है, उसे उसका सामाजिक दर्जा याद दिलाया जाता है। पर- क्या आस्था और प्यास को ऊंच-नीच में बांटा जा सकता है?
- नारायण बारेठ, बीबीसी संवाददाता, 
बी-47, अशोक विहार,  सेक्टर नं. 11 के पीछे, 
मालवीय नगर, जयपुर (राज.)   मो. : 94140-42277

No comments:

Post a Comment