Saturday, October 16, 2010

भोपाल गैस त्रासदी संदर्भ में: यदि यह सच है तो सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है - ‘शहरयार’ की रिहाई के बदले हुई थी ‘एंडरसन’ की विदाई !

एक सौदा हुआ। भारत ने 7 दिसम्बर 1984 को एंडरसन को छोड़ा और बदले में 11 जून 1985 को अमेरिका ने आदिल शहरयार को जेल से रिहा कर दिया। अगले दिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी वाशिंगटन पहुंचे थे। क्या मनमोहन सिंह की सरकार इससे इनकार कर सकती है?
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20 सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित
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विपक्ष के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी देर से ही सही, बोले बहुत संभल कर। वे ही जानें कि ऐसा वे क्यों और किन कारणों से कर रहे हैं। मनमोहन सिंह सरकार से उनका सवाल है कि वह बताएं कि वह सौदा क्या था जिसके तहत वारेन एंडरसन को छोड़ा गया? पते की बात यही है, जिसे वे लोग अच्छी तरह जानते हैं और जिनकी अमेरिकन दस्तावेजों तक पहुंच है। इन दस्तावेजों के लिए इंटरनेट पर थोड़ा समय गुजारना काफी है। कभी वे दस्तावेज गोपनीय और क्लासीफाइड रहे होंगे, लेकिन इस समय नहीं है। अब आसानी से उन्हें देखा और पढ़ा जा सकता है। उनसे ही यह जानकारी निकल कर आती है कि एंडरसन को एक सौदेबाजी में छोड़ा गया था। फिर भी, लालकृष्ण आडवाणी भारत सरकार से जानना चाहते हैं तो यह उनकी राजनीति का एक सधा हुआ कदम है। साफ है कि वे जानते हुए भी अपनी ओर से आरोप लगाने या दावा करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते। वे चाहते हैं कि सरकार ही बोले।
लेकिन- क्या यह संभव है? इसे समझने के लिए कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार के रवैये को जानना ज्यादा जरूरी है। कुछ दिन पहले सी.आई.ए. (अमेरिका की प्रमुख खुफिया एजेन्सी) की रिपोर्ट के हवाले से यह उजागर हुआ कि- एंडरसन को भारत सरकार ने रिहा कराया। यह रिपोर्ट 26 साल पुरानी है, जिसे 2002 में सार्वजनिक कर दिया गया। एंडरसन को रिहा करने के अगले दिन सीआईए के दिल्ली दफ्तर में इसे दर्ज किया कि अर्जुन सिंह केन्द्र के आदेश पर काम कर रहे थे। इसके उजागर होते ही कांग्रेस की हालत वैसी ही हो गई जैसे- ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’। कांग्रेस का नेतृत्व सक्रिय हो उठा और वह राजीव गांधी को बचाने में जुट गया। पहले जयंति नटराजन बोली कि केन्द्र का इसमें कोई हाथ नहीं है। दिग्विजय सिंह ने संशोधन किया और कहा कि केन्द्र का आदेश था, लेकिन उसमें राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी। दस जनपथ के दरबारी इस पर आपस में ही होड़ करने लगे। किन्तु, उसकी हवा पी.सी. अलेक्जेंडर ने यह कहकर निकाल दी- ‘मुझे लगता है कि राजीव गांधी और अर्जुन सिंह में विमर्श हुआ होगा’। तब इसका जवाब देने के लिए उछलकर आर.के. धवन आए और बोले कि- ‘वह अपनी भड़ास निकाल रहे हैं।’
प्रणव मुखर्जी कोलकाता में थे। तो वे वहीं से बोले कि- ‘अर्जुन सिंह ने वहां के हालात को काबू में रखने केे लिए ऐसा फैसला खुद ही लिया।’ तब नए मुल्ला वीरप्पा मोइली कैसे चुप रह सकते थे इसलिए उन्होंने जजों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। इस तरह से मामला पेचीदा होता चला गया और देश के साधारण नागरिक ने खुद को ही कांग्रेस की इस भूल-भुलैया में भटकता हुआ पाया। उसे कहीं से भी कोई रोशनी नजर आ रही थी, जिसमें वह यह देख सकें कि- वास्तविकता क्या है? जो लोग ऐसे समय में जांच को ही जरिया समझते हैं वे बोल उठे कि- ‘एक जांच आयोग बने जो बताए कि एंडरसन को किसने भगाया?’ उसी समय पूर्व विदेश सचिव एम.के. रसगोत्रा का बयान आया, जिससे उलझन घटी नहीं बल्कि बढ़ गई। वे अपनी याददाश्त पर जोर लगाकर बोले- ‘कि तत्कालीन गृह मंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने निर्देश दिया कि एंडरसन को रिहा कर दिया जाए।’ एम.के. रसगोत्रा के इस कथन पर अगर भरोसा किया जाए तो मतलब साफ है कि राजीव गांधी को भी इसकी सूचना बाद में दी गई और जिस पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। इस बयान में बड़ी मासूमियत है और एम.के. रसगोत्रा इस उम्र में उसे सुरक्षित रख पाए हैं। लेकिन, भारत में अमेरिकी मिशन के पूर्व उपाध्यक्ष गार्डन स्ट्रीब ने यह सारी कलई उतार दी और कहा कि- ‘एंडरसन को एक समझौते के तहत रिहा किया गया।’ गार्डन स्ट्रीब के इस बयान से दस जनपथ के दशाननों की मुसीबत बढ़ गई। साथ ही समस्या यह हो गई कि इस उजागर हुए ‘समझौते’ को  कैसे लोगों के गले उतारा जाए और वह भी इस तरह से कि राजीव गांधी के नाम व धाम पर कोई उंगली न उठे। इसी उधेड़बुन मंे पी.वी. नरसिंह राव के नाम का इस्तेमाल किया गया और उनके बेटे से भी बयान दिलवाया गया। चूंकि पी.वी. नरसिंह राव अब खंडन करने के लिए नया जन्म तो लेने से रहे। वहीं, अजीब हाल पत्रकारों का भी है। वे भी कांग्रेस मुख्यालय खबर के लिये नहीं जाते, बल्कि प्रवक्ता को सुनने जाते हैं और वहां से लौटकर उतना ही बताते हैं जितना प्रवक्ता से हुक्म मिलता है। यदि पत्रकारों की रूचि खबर में ही होती तो उन्हें यह सुराग वहीं मिल जाता कि- भोपाल गैस त्रासदी के वक्त प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहली चिंता अपने दोस्त आदिल शहरयार का दुःख निवारण करना था, जो अमेरिका की एक जेल में सजा काट रहे थे। उस समय के ईमानदार अफसरों और कांग्रेस के नेताओं को भली-भांति याद है कि अमेरिकी प्रशासन से एक सौदा हुआ था। उसी का परिणाम था कि एंडरसन के रिहा करने के छः महीने बाद अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने आदिल शहरयार की सजा माफ कर दी। उन्हें 35 साल की सजा सुनाई गई थी। 30 अगस्त 1981 को मियामी के एक होटल में आगजनी के आरोप में वह पकड़ा गया और उससे शुरूआत हुई छानबीन में उसके दूसरे अपराधों का भी पता चला। इस तरह अमेरिकी प्रशासन ने उसे खतरनाक मुजरिम घोषित किया।
मुकदमा चला और उसे सजा दी गई। 1983 में उसकी ओर से पुनर्विचार की अपील पर भी सजा बरकरार रही। उस दौरान रोनाल्ड रीगन के एक बड़े समर्थक ने कोशिश भी की कि उसे अमेरिका रिहा कर दे और भारत सुरक्षित भेज दे। उसने इसके लिए मोहम्मद युनूस और इन्दिरा गांधी के गहरे पारिवारिक संबंधों का वास्ता भी दिया। लेकिन बात बनी नहीं। किन्तु, भोपाल गैस त्रासदी में एंडरसन की गिरफ्तारी से अमेरिका की सद्भाव चेतना जागी। जिसमें एक सौदा हुआ। इस सौदे में भारत ने 7 दिसम्बर 1984 को एंडरसन को छोड़ा और बदले में 11 जून 1985 को अमेरिका ने आदिल शहरयार को जेल से रिहा कर दिया। उसके अगले दिन ही (12 जून को) प्रधानमंत्री राजीव गांधी वांशिगटन पहुंचे थे। क्या मनमोहन सिंह की सरकार इससे इंकार कर सकती है? (आलेख- साभारः पाक्षिक ‘प्रथम प्रवक्ता’ - ‘‘16 जुलाई, 2010’’)

‘सफ़र’ कहन : गत दिनों ही 11 अगस्त 2010 को भोपाल गैस त्रासदी पर लोकसभा में हुई विशेष चर्चा में भाग लेते हुए कांग्रेस के केन्द्रीय प्रवक्ता और लुधियाना से कांग्रेस के सांसद मनीष तिवारी ने बड़े ही जोश-खरोश के साथ कानूनी बारीकियों को समझाते हुए इस मामले में तत्कालीन एनडीए सरकार व उसके कानून मंत्री अरूण जेटली (वर्तमान में राज्यसभा में प्रतिपक्ष भाजपा के नेता) को जिम्मेदार ठहराने की भरपूर कोशिश की। वैसे भी मनीष तिवारी जब भी किसी भी मामले में ‘प्रेस ब्रीफिंग’ करते हैं तब वह ‘एंग्रीमेन’ की भांति नजर आने लगते हैं। आखिर, प्रवक्ता की अपने मालिक व संबंधित संगठन/संस्था के प्रति यही तो वफादारी व प्रतिब(ता की पहचान होती है, वर्ना उसकी नौकरी खतरे में ही समझो।
तो अब, ‘समाचार सफ़र’ का कांग्रेस के वफादार कहे जाने वाले प्रवक्ता व सांसद मनीष तिवारी से यही सवाल है कि- अब जब यह खुलासा हो रहा है कि एंडरसन की रिहाई (सरकार की ओर से सम्मानीय विदाई) एक समझौता थी और जिसकी एवज में उस समय के हमारे प्रधानमंत्री राजीव गांधी के करीबी व पारिवारिक मित्र आदिल शहरयार (जो संभवतः इंदिरा गांधी के विश्वसनीय सलाहकार मोहम्मद युनूस के पुत्र है) को अमेरिकी जेल से रिहा किये जाने की शर्त तय हुई थी - तो अब इस खुलासे पर ज़नाब मनीष तिवारी का क्या जवाब है या अब वह इस मामले पर खामोश ही बने रहेंगे?
वहीं, उस समय के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने भी 11 अगस्त की लोकसभा में हुई चर्चा में भाग लेते हुए बड़ी ही शालीनता के साथ धीर-गंभीर लहजे में बताया कि वह यह बात पूरी गंभीरता और जिम्मेदारी से कह सकते हैं कि- ‘तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एंडरसन के समर्थन में या उसकी समस्या को दूर करने के लिए एक भी शब्द नहीं कहा।’ जबकि यह इन वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का बहुत बड़ा झूंठ है। इनके इस बयान से यह भी पता चलता है कि नेहरू-गांधी परिवार की छवि पर कोई आंच न आने देने के लिए सच्चाई का गला घोंटने और इतिहास को झूठा सिद्ध करने में कांग्रेस के नेता किस हद तक जा सकते हैं? भोपाल गैस मामले में अर्जुन सिंह के इस बयान को मई 2008 में नेहरू-गांधी परिवार के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए दिए गए उनके बयान के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि जब मैं मार्च 1960 में जवाहर लाल नेहरू जी से मिला तब मैंने उनके और उनके परिवार के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा की शपथ ली थी। अपने जीवन के पिछले 48 सालोें में मैंने पूरी तरह इसका पालन किया। मैं अपने बाकी जीवन में इस निष्ठा और प्रतिबद्धता को बरकरार रखने के लिए सब कुछ करूंगा। नेहरू-गांधी परिवार के प्रति स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने में कांग्रेस पार्टी के ये अकेले ही नेता नहीं है।
अनेक नौकरशाह और कूटनीतिज्ञ भी एक राजनीतिक परिवार अथवा राजननीतिक दल के प्रति अपनी वफादारी में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि वह खुद को ही फंसा बैठते हैं। पूर्व विदेश सचिव एम.के. रसगोत्रा भी ऐसे ही एक नौकरशाह हैं, जो सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस पार्टी के विदेशी मामलों के सेल के सदस्य बन गए। तो यह है कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह की नेहरू-गांधी परिवार के प्रति वफादारी का सबूत, जिसकी खातिर वह पूरे देश से झूठ बोलने को तत्पर बने हुए हैं। फिर अब तो ऐसे ‘वफादार’ लगभग हर राजनैतिक पार्टी में मिल जायेंगे, जो अपनी ‘वफादारी’ साबित करने के लिए वह किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। वर्ना तो, ‘आत्मा की आवाज’ के नाम पर ‘दल-बदल’ करना भी अब तो ‘वफादारी’ में ही शामिल है। धन्य है ऐसे राजनेता, जो ‘वफादारी’ के नाम पर देश को ‘लूटना-खसोटना’ भी अपनी सफलता व शान समझे हुए हैं। 

- सम्पादक

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