Sunday, October 17, 2010

सम्पादकीय....... (20 सितम्बर 2010 में प्रकाशित)

भ्रष्टाचारियों व अपराधियों की कैद में बनी हुई ‘लोकतंत्रीय व्यवस्था’ से पीड़ित आमजन संबंधी समस्याओं के निराकरण के लिए संघर्षरत बनी हुई लघु व मध्यम स्तरीय पत्र-पत्रिकाएं के संघर्ष पर - कब तक खामोश बने रहेंगे ‘व्यवस्था’ के सभी प्रमुख स्तम्भ?
क्या उच्च वेतनभोगी व सुविधाभोगी बने हुए सांसदगण इन समस्याओं के निराकरण में सहयोग करने का साहस दिखायेंगे?
यहां पर हम यह भी खुलासा कर रहे हैं इस संघर्ष में हमारे साथ कोई भी घटना/दुर्घटना हो जाने पर या हमें ‘कानूनी अवमानना’ या अन्य किसी भी आधार पर झूंठे मामलों में फंसा दिये जाने पर भी हमारा यह संघर्ष अनवरत जारी रहेगा और संघर्ष की इस मशाल को थामेंगे अनेकों भारतवासी - हमारी यही चुनौती व चेतावनी है लोकतंत्रीय व्यवस्था के संचालन के नाम पर ‘व्यवस्था’ को कैद किये हुये भ्रष्टाचारियों व अपराधियों को। हम भारतवािसयों का15 अगस्त 1947 तक का संघर्ष विदेशी ब्रिटिश हुकूमत से देश की आजादी का था और हमारा आज का यह संघर्ष भ्रष्टाचारियों व अपराधियों की कैद में फंसी हुई असंख्य बलिदानों के बाद प्राप्त हुई ‘देश की आजादी’ एवं ‘लोकतंत्रीय व्यवस्था’ की मुक्ति व सुरक्षा का है। जिसके लिए हम इस भारतभूमि के शोषित, दमित, उपेक्षित, कमजोर और लघु व मध्यम स्तरीय कहे जाने वाले आमजन और मीडिया वर्ग कृत संकल्पित है।
- जीनगर गहलोत, सम्पादक

गतांक से आगे - (6)

देश की आजादी के समय तब के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा स्वीकार की गई ‘लोकतंत्रीय व्यवस्था’ अब मात्र विदेशी प्रतिष्ठानों तथा देशीय सम्पन्न बने हुए विशिष्ट वर्ग, भ्रष्ट व निरंकुश नौकरशाहों व राजनेताओं और हर क्षेत्र में अपनी दबंगता का परिचय देने वाले दबंगों ;जिनको अपराधी व समाजकंटक कहा जाना ही उचित होगाद्ध के लिए ‘आरक्षित’ हो चुकी है - यह अब स्पष्ट होता जा रहा है। क्योंकि, स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक जिस तरह से ‘विकासरूपी भ्रष्टाचार’ (जो अब ‘शिष्टाचार’ बन चुका है) को जिस तरह से सम्मानित होते देखा जा रहा है उसमें देश के आमजन कहे जाने वाले कमजोर दमित व शोषित बने हुए वर्ग की आवाज को दूर-दूर तक कोई भी सुनता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। विधायिकाएं एवं कार्यपालिकाएं अपने-अपने निज-हित की खातिर अपनी मनमानी करने पर आमादा बनी हुई है, तो न्यायपालिका कभी बेबस तो कभी ‘लक्ष्मण रेखा’ से बंधी तो कभी भ्रष्टाचार के आरोपों से मंडित नजर आती है।
उधर लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया (विशेष रूप से बिग प्रिंट मीडिया व न्यूज चैनल्स) के संचालक इस कदर लालची बन गये हैं कि वह येन-केन-प्रकारेण अधिकाधिक धन कमाने के लालच में अपने ‘मीडिया कर्म दायित्व’ को भूल चुके हैं। जिसके कारण से लघु वर्गीय कहे जाने वाले पत्र/पत्रिकाओं के संचालकगण प्रभावित बने हुए हैं। मीडिया क्षेत्र में अपनी बेबाक, स्पष्टवादी व प्रभावी लेखनी के धनी और मीडिया पुरोधा कहे जाने वाले विशिष्टजनों का अकाल सा ही होता जा रहा है। कमलेश्वर जी, प्रभाष जोशी जी जैसे मीडिया पुरोधाओं के हम सबको अलविदा कह जाने के बाद, शेष बचे पुरोधाओं में कुलदीप नैयर जी, विनीत नारायण जी, वेद व्यास जी, सुरेश पंडित जी, डॉ. असगर अली इंजिनियर सा., डॉ. राम पुनियानी जी, कुमार प्रशांत जी, अनिल चमड़िया जी, पी. सांईनाथ जी जैसे अंगुलियों पर गिने जा सकने लायक ‘मीडिया पुरोधा’ ही अब हम जैसे लघु कहे जाने वाले ‘जागरूक मीडिया संचालकों’ के मार्गदर्शक रूप में शेष बचे हुए हैं। बाकी तो, दूर-दूर तक रेगिस्तान समान ‘रिक्त स्थान’ ही बना नजर आ रहा है। कहने को तो साहित्य-सेवक भी इस निड्डष्ट होती व्यवस्था के खिलाफ अपने निष्पक्ष लेखन द्वारा प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं लेकिन, वहां पर भी इन नेताओं द्वारा पैदा की गई गुटबाजी इस कदर हावी है कि ‘अयोध्या विवाद’ से उपजी साम्प्रदायिकता की भांति ही ‘छिनाल विवाद’ ने भी समूचे साहित्य-क्षेत्र को हिलाकर रख दिया है।
वहीं, ‘बिग’ कहे जाने वाले प्रिंट व न्यूज मीडिया का ‘दोगलापन’ तो गत दिनों बिहार विधानसभा में हुए हंगामे के समय किये गये प्रकाशन व प्रसारण में तथा वर्तमान में अयोध्या के विवादित मंदिर-मस्जिद मामले में यू.पी. की हाईकोर्ट (इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच) के आने वाले फैसले को लेकर प्रकाशित व प्रसारित की जा रही प्रतिक्रियाओं में साफ देखा जा सकता है। ‘पेड न्यूज’ प्रकरण में आखिर यही ‘बिग मीडिया’ ही तो नंगा हो रहा है, जो ‘पेड न्यूज’ का पाप सिर पर लेकर भी बेशर्म की भांति बेफ्रिक बना घूम रहा है और जो अनैतिक होकर भी ‘नैतिकता’ की बात करता नजर आता है। ‘बिग मीडिया’ की ऐसी कार्यशैली पर गत दिनों कुछ व्यक्तियों में चल रही निज चर्चा में यह भी सुनाई दिया कि- आज का यह बड़ा कहे जाने वाला मीडिया तो आतंकवादियों से भी अधिक आतंकी बना हुआ है। कैसी सोच बनती जा रही है आमजन की, विश्वसनीय कहे जाने वाले बिग मीडिया के प्रति, जो अब हमारे व्यवस्था संचालकों के समान ही अविश्वसनीय बनता जा रहा है। ऐसे में, यदि यह कहा जाए कि- हमारे भारत देश को, बाहर वालों से नहीं, बल्कि अपने वालों से ही खतरा बना हुआ है तो शायद गलत नहीं होगा और इन अपने वालों में शामिल है भ्रष्टाचारियों व अपराधियों के संरक्षक बने हुए राजनेता $ नौकरशाह $ मीडिया का गठजोड़। आखिर- इस देश में घटित होने वाले हर उग्र व हिंसक प्रदर्शन के पीछे इसी गठजोड़ का समर्थन व सहयोग साफ दिखाई दे रहा है।
अब तो ‘सूचना का अधिकार’ के तहत सूचना मांगने वाले जागरूक नागरिकों की या तो हत्यायें हो रही हैं या फिर उनको झूठे आरोपों में फंसाकर प्रताड़ित किया जा रहा है तथा भ्रष्टाचार का विशाल समुद्र बनते ‘महानरेगा’ के ‘सामाजिक अंकेक्षण’ के विरोध में सभी भ्रष्टाचारी खुले रूप से लामबंद हो रहे हैं - अफसोस कि व्यवस्था के चारों ही प्रमुख स्तम्भ इस ‘भ्रष्टाचारी आतंक’ के समक्ष कायर समान कमजोर बन आत्मसमर्पण की मुद्रा मंे खड़े हुए हैं। अगले माह में नई दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स की व्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार के लगातार उजागर होते मामले और इसमें दलितों के उत्थान के लिए आवंटित राशि का दुरूपयोग उजागर होने के बाद भी - आखिर किसने, किसका क्या बिगाड़ लिया? क्या कांग्रेस के मुखिया सोनिया गांधी व राहुल गांधी, संसद में भाजपा के मुखिया सुषमा स्वराज व अरूण जैटली और अन्य वामपंथी व समाजवादी नेताओं को इस ‘घालमेल’ की जानकारी नहीं होगी? लेकिन, ये सब इसके बहाने मात्र ‘अखबारी बयान’ और ‘संसदीय कार्यवाही के वाकआउट’ किये जाने तक ही सीमित बने हुए हैं। बाकी तो, ये सभी भरपूर सरकारी सुविधाओं पर ‘सफेद हाथी’ समान ‘मदमस्त’ बने हुए हैं। गत दिनों ही, झारखंड में भाजपा शासित सरकार के हुए गठन के पीछे छिपा हुआ कांग्रेस व भाजपा का ‘मौन गठजोड़’ देश के जागरूकजनों से छिपा हुआ नहीं है, जिसका सच भी जल्दी ही किसी ना किसी ‘मीडिया पुरोधा’ द्वारा देशवासियों के सामने उजागर हो जाएगा।
गत दिनों ही, 16 सितम्बर 2010 गुरूवार को देश के वरिष्ठ कानूनविद् और पूर्व कानून मंत्री श्री शांतिभूषण द्वारा देश की सर्वोच्च कानून पीठ ‘सुप्रीम कोर्ट’ में प्रस्तुत किया गया हलफनामा और उस हलफनामा आधार पर उनको पार्टी बनाए जाने की जिस तरह से मांग की गई है वह देश की न्यायिक व्यवस्था में पनपे हुए ‘भ्रष्टाचार’ को ही पूरे देश के सामने उजागर करने का साहसिक प्रयास है। सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किये गये अपने इस हलफनामा पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री शांतिभूषण ने कहा है कि- ‘वह भी सार्वजनिक तौर पर 16 में से 8 सीजेआई ;मुख्य न्यायाधीशद्ध के भ्रष्ट होने की बात कह रहे हैं। ऐसे में उनको भी अवमानना मामले में पार्टी बनाया जाना चाहिए ताकि उन्हें भी उपयुक्त सजा मिल सके। वे इसे सम्मान की बात समझेंगे कि देश को ईमानदार और स्वच्छ न्यायपालिका दिलाने के प्रयासों में उन्हें जेल जाना पड़ा। उन्होंने याचिका की सुनवाई सिर्फ तीन जजों की बेंच की बजाय पूर्ण अदालत द्वारा किए जाने की भी अपील की। क्योंकि इससे पूरी न्यायपालिका प्रभावित हो रही है।’ श्री शांतिभूषण ने उस मामले में उन्हें भी पार्टी बनाए जाने की मांग की है जिसमें उनके वरिष्ठ वकील पुत्र प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही चल रही है। उल्लेखनीय है कि- न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर एक लेख के मामले में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का मामला लंबित है। इस लेख में प्रशांत भूषण ने कहा था कि 16 पूर्व सीजेआई में से 8 भ्रष्ट है। इसमें वर्तमान सीजेआई एस एच कपाड़िया और कुछ अन्य जजों व पूर्व सीजेआई पर भी टिप्पणियां की गई थी। इस लेख पर वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने अवमानना की कार्यवाही के लिए आवेदन दिया था। अल्तमस कबीर, सी. जोसफ और एच.एल. दत्तू की बेंच ने इस मामले में प्रशांत भूषण से 12 हफ्ते के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा है और 10 नवम्बर 2010 को अंतिम सुनवाई तय की है।
विचारणीय है कि- जब देश के पीड़ितजनों का एकमात्र सहारा कही जाने वाली न्यायिक व्यवस्था भी भ्रष्टाचार के दल-दल में फंसती जा रही है, तो ऐसे में हम पीड़ित भारतवासी किससे न्याय व सहयोग की उम्मीद रखें? संभवतः हमारे आजाद देश के इतिहास में यह पहला अवसर होगा जब एक वरिष्ठ कानूनविद्व ने न्यायिक व्यवस्था में पनप रहे भ्रष्टाचार को इस तरह से खुली चुनौती दी है। काश, देश का हर कानूनविद्व श्री शांतिभूषण व श्री प्रशांत भूषण की भांति ही न्यायिक व्यवस्था में नीचे से लेकर शीर्ष स्तर तक फैले हुए भ्रष्टाचार को खुली चुनौती दें, तो हमारा यह मानना है कि व्यवस्था का संचालन करने वाले भ्रष्टाचारियों व अपराधियों की आत्मा कांप उठेगी। जरूरत है तो राष्ट्र हितकारी व पीड़ित जनहितकारी सोच व साहस की। इन दिनों राजस्थान प्रदेश में ‘एडीजे भर्ती में हुए घोटाले’ के खिलाफ प्रदेश के सभी वकीलगण एकजुट होकर आंदोलित बने हुए हैं जिसमें निश्चित ही इनकी सफलता होने की संभावना है। काश, न्यायिक व्यवस्था में पनपे हुए भ्रष्टाचार व कानून के हो रहे दुरूपयोग को रोकने के लिए भी देश भर के वकीलों में ऐसी ही एकजुटता संभव हो सके तो हमारी ‘लोकतंत्रीय व्यवस्था’ निश्चित ही इन कानूनविद्वों के प्रति आभारी होगी। लेकिन यह तभी संभव हो सकेगा जब ये सभी कानूनविद्व अपने-अपने पूर्वाग्रहों और राजनैतिक आधारित विचारों का त्याग कर खुले मन व विचार से एकजुट हों।
हम सभी जानते हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों से लेकर शीर्ष न्यायालय तक में बिना सेवा शुल्क दिये कोई भी काम आसान नहीं है। हाई कोटर्् व सुप्रीम कोर्ट में तो विचाराधीन बने हुए मामलों (चाहे वह किसी नेचर का हो) में संबंधित पक्षकारों को अमूमन अपने अधिवक्ता से यही सुनने को मिलता है कि- ‘अपने माफिक बेंच आने पर ही इस मामले को निपटायेंगे’। लेकिन, हम अभी तक यह नहीं समझ पा रहे हैं कि- ‘अपने माफिक बेंच आने’ का मतलब क्या है? क्या यह कोई सेटिंग का ‘खेल’ है या फिर सिर्फ मामले को लंबा खेंचे जाने के लिए पक्षकार को भ्रमित व मूर्ख बनाये रखने का ‘खेल’ है? जबकि, इस स्थिति से देश भर के लगभग सभी वकील महानुभाव ;चाहे वह नये हों या फिर वरिष्ठ व पुराने होंद्ध भली भांति परिचित है। इसी भांति, कानूनों का हो रहा दुरूपयोग भी जगजाहिर है। महिला संरक्षण के नाम पर बने हुए ‘दहेज उत्पीड़न कानून’ और ‘घरेलू हिंसा कानून’ का खुले आम हो रहा दुरूपयोग भी जगजाहिर है। जिसमें आधुनिकता व आजदी के नाम पर स्वछन्द विचारों की महिलाएं और उनके सहयोगी बनने वाले परिजन/हितैषीजन द्वारा ‘पति’ का दर्जा प्राप्त पुरूषों और उनके परिजनों का उत्पीड़न किया जा रहा है, लेकिन इस हो रहे अकारण के ‘पुरूष उत्पीड़न’ पर भी चहुं ओर ही सन्नाटा पसरा हुआ है। जबकि, कानून के इस हो रहे दुरूपयोग को संभवतः सुप्रीम कोर्ट भी स्वीकार कर चुका है। वहीं, इस कानून की असलियत यह भी है कि वास्तव में पीड़ित बनी हुई महिलाएं तो आज भी यदा-कदा ही अदालत की देहलीज चढ़ पाती है, वर्ना तो वह ससुराल में ही अपना जीवन स्वाहा कर लेती है या फिर आपसी रजामंदी से ‘तलाक’ लेकर एक नवीन जीवन की शुरूआत कर लेती है। कानूनों के हो रहे दुरूपयोग को रोकने के लिए - क्या देश के कानूनविद्व एकजुट होकर प्रभावी कार्यवाही का शुभारंभ करेंगे?     
काश, इन मामलों पर देश का मीडिया (बिग बना हुआ) ही अपने ‘मीडिया कर्म दायित्व’ का ही पूरी ईमानदारी, निष्पक्षता व प्रभावी रूप से आज से भी निर्वाह करना शुरू कर दे, तो निश्चित ही इस देश से भ्रष्टाचारियों व अपराधियों का हमेशा के लिए खात्मा हो जाएगा। लेकिन, कहावत है कि जब बाड़ ही खेत को खाने लगेगी तो खेत किस तरह से सुरक्षित रह सकेगा। 15 अगस्त 1947 से आज 20 सितम्बर 2010 तक के लंबे लोकतंत्रीय सफ़र में देश में जितने भी शीर्ष स्तरीय भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं, उनमें से कितने दोषी सजा पाकर जेल में बंद बने हुए हैं? - क्या हमारा यह जागरूक कहे जाने वाला और स्ंिट्रग ऑपरेशन करने वाला बिग मीडिया यह बताने का साहस करेगा? यदि उनको इन घोटालों की जानकारी ना हो तो वह वरिष्ठ पत्रकार श्री विनीत नारायण जी से मिलकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। कर्नाटक हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दिनाकरन के विरोध के पीछे छिपे हुए भ्रष्टाचारियों $ राजनेताओं के गठजोड़ के सच को क्या यह बिग मीडिया उजागर कर अपनी निष्पक्षता व जागरूकता का परिचय देने का साहस करेगा? वहीं, कर्नाटक में ही भाजपा समर्थित एवं भाजपा की वरिष्ठ नेता श्रीमती सुषमा स्वराज के आशीर्वाद प्राप्त बने हुए ‘खनन माफिया’ रेड्डी बंधुओं की चल रही ‘आतंकी दबंगता’ व ‘अवैध खनन कार्य’ के मामले में कांग्रेस व भाजपा सहित देश की सभी राष्ट्र हितैषी कही जाने वाली राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तरीय राजनैतिक पार्टियां खामोश क्यों बनी हुई है?  
वहीं, राष्ट्रवादी और हिन्दुत्व रक्षक होने का दम भरने वाली भाजपा के प्रमुख संचालकगण क्या बताने का साहस करेंगे कि- उनके अपने ही तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का अपराध क्या था और उनका राजनीतिक वनवास कब तक खत्म होगा? तथा- हर छोटे-मोटे विवाद को धर्म के चश्मे से नापने वाले उनके हिन्दुवादी सहयोगी संगठन और वे स्वयं भी, उच्च हिन्दुओं द्वारा दलित हिन्दुओं के उत्पीड़न पर सदा ही खामोश क्यों बने रहते हैं? क्या वे यह भी बताने का साहस करेंगे कि डॉ. तोगड़िया और ओसामा बिन लादेन के उग्रवादी बयानों में और हिन्दुत्ववादी आतंकवाद व इस्लामिक आतंकवाद में वे किस तरह का अंतर व समानता महसूस करते हैं? देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम द्वारा ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द का उपयोग करने पर उनमें किस कारण से उग्र बैचेनी फैल गई? तथा, देश में धर्म के नाम पर चल रहे व्यापार पर उनकी सोच क्या है? - क्रमशः

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