Monday, October 11, 2010

जब पतंग टूटेगी तब जाने किन हाथों में लुटेगी?

20 सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित
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गलत भी सोचते हैं और हम छाती भी पीटते हैं कि दूषित होते पर्यावरण और मोती बनकर दुर्लभ होती पानी की बूंद को तरसता हमारा जीवन खतरे में है। अगर खतरे में है तो फिर हम चादर तानकर सोने का आनंद क्यों ले रहे हैं? फिर हमें यह भी सोचना है कि अगर कोई खतरा है तो उसे दूर करने के लिए हम क्या कर रहे हैं? यह अति अबौ(िक बात है कि हम हर समस्या का हल राजनीतिक नजरिये से सरकार से चाहते हैं। इसे कौन नहीं जानता कि लोकतंत्र में राजनीति का अपना एक रवैया होता है। जिसमें लोक कल्याण के नाम पर हमारे आत्मबल, हमारे आत्मविश्वास और यहां तक कि हमारी अपने प्रति जिम्मेदारी की भावना भी छीन लेने का उपक्रम स्वाभाविक होता है। वस्तुतः हमने अपने ज्ञान और सुख-दुःख सरकार के जिम्मे कर दिये हैं। इसलिये, अब पढ़ाये तो सरकार, इलाज करे तो सरकार, रोजगार दे तो सरकार, बंूद बचाये तो सरकार, हरितिमा लाये तो सरकार। चाहे हम भले ही बूंद-बूंद को व्यर्थ कर सागर को ही रीता करें या दरख्त को काटकर धरती को निर्वसन करें।
फिर आज जो प्रवाह बन गया है, उसके अनुसार कुछ दिनों बाद शायद हम यह भी चाहेंगे कि हमारे जने बच्चे भी सरकार ही पालें। यदि सरकार ने ऐसा नहीं किया तो जैसे सड़क पर कचरा फेंक कर सफाई न करने के लिए हम नगर पालिका को गालियां देते हैं, वैसे ही बच्चे न पालने पर हम सरकार को भी गालियां देने लगेंगे। जबकि, राज-धारी भी अब कम चतुर नहीं है। उन्होंने भी हमारे हाथ से हमारा सब कुछ लेकर हमें आलोचना करने और गालियां बकने का अधिकार दे दिया है। हमारा आलोचना पर अधिकार है और अब गालियां बकने का भी अधिकार दे दिया है। आलोचनाओं के बटुवे बांटकर हम वैसे ही खुश बने हुए हैं, जैसे स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में बैठा यात्री बगल में चलने वाली ट्रेन को देखकर अपनी ट्रेन के चलने का भ्रम पालकर खुश होता है। जबकि हम आम की ट्रेन तो खड़ी हुई है और खास की ट्रेन चल रही है।
हमारा एक बड़ा वर्ग तो सिर्फ चलने के भ्रम में बैठा हुआ है। जबकि शक्ति और साधन की दौड़ में तो वे हैं, जिनकी ट्रेन दौड़ रही है। वे तो चलती ट्रेन में भी एक-दूसरे से आगे निकलने और सबसे आगे की सीट पर बैठने के लिए गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं। वहीं, कहीं खड़ी ट्रेन में बैठे किसी यात्री का भ्रम न टूट जाये और कूद कर उनकी ट्रेन में न आ जाये, इसलिये मुफ्तखोरी की आदतें भी पनपाई जा रही है। अनुदानों की बिसात बिछाई जा रही है, न चुकाने के लिये कर्जो का जाल बुना जा रहा है, पेन्शनों का दायरा बढ़ाया जा रहा है। इस तरह से, एक छोटा समूह तो सम्पन्न होता जा रहा है और दूसरा बड़ा समूह आलसी, निकम्मा व टुकड़खोर बनता जा रहा है। ऐसी व्यवस्था में समर्थो को तो अपने स्वार्थ पूर्ति की फ्रिक है, तो असमर्थो को कर्जा, अनुदान, सरकारी सहायता झटक लेने की फिक्र। स्वतंत्र देश में बड़े सूरमा बनते हैं हमारे मीडिया वाले, लेकिन वे भी जनता को तन्द्रावस्था में पहंुचाकर टीआरपी की शतरंज ही खेल रहे हैं। जो अखबार को ‘समाज का आईना’ घोषित कर अपने ही चेहरे और गठजोड़ की बाजीगरी को रोज ही दिखाते रहते हैं। बड़ा ही अद्भुत दृश्य है 63 वर्ष की घोर अव्यवस्था वाले देश का, जिसमें कि- जनता की श्रमशीलता के करोड़ों क्षण, टीआरपी और अवांछनीय सामग्री के प्रकाशन की एवज में ही खपाये जा रहे हैं। क्या यही हमारी असली तस्वीर है? दरअसल, हमारे स्वाधीन देश का जो दृश्य है उसमें सम्पन्न तो निरन्तर ही सम्पन्न और विपन्न निरन्तर ही विपन्नतर होता जा रहा है तथा समर्थ, असमर्थ को धकिया रहा है। बड़ी मछलियां, छोटी मछलियों को निगलें यह तो हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा है। प्रलोभन से लोगों को बरगलाने की अफीम खिलाकर धनबल, बाहुबल और सत्ताबल अर्जित कर लेना तो आजादी नहीं होती। क्या यह नहीं लगता कि हमने अपने स्वतंत्रता के वेश में प्रलोभन तंत्र और लूट तंत्र को विकसित कर लिया है? ऐसे तंत्र में एक सीमा के बाद ‘लोकतंत्र का मुखौटा’ भी फट जाता है और स्वतंत्रता भी एक तरह की परतंत्रता में बदल जाती है।
जब देश जकड़ेगा तो हमारा तंत्र बिगड़ेगा, और देश नहीं बढ़ेगा तो तंत्र भी कैसे चलेगा? देश मात्र राजनीतिक हकीमी और अर्थतंत्रता से ही आगे नहीं बढ़ता। देश बढ़ता है विज्ञान और तकनीकी से, सामयिक युगान्तरी दृष्टिकोण, सर्वग्राही विचारधारा और अन्वेषण-अनुसंधान से। हमारे यहां तो वैज्ञानिक, विशेषज्ञ, विचारक और मनीषी या तो आत्महत्या करते हैं, या खुद ही निर्यात हो जाते हैं और विदेशों में जाकर पुरस्कार पाते हैं। वहीं जनसेवक, अफसर या उद्योगपति का अहंकार भी ‘प्रबुद्ध’ को ‘पायल’ की तरह पहनना चाहता है या फिर ‘घुंघरू’ की तरह बजाना चाहता है। जबकि बुद्धि कोई धातु तो नहीं या संगीत वाद्य का कोई तार भी नहीं कि जो घुंघरू बन जाये, इसलिए वह टूट जाता है और हमसे दूर ही चला जाता है। हम वैज्ञानिक बुद्धि और विचारधारा से रिक्त हो रहे हैं और अपनी खामियों पर ढक्कन लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हम तो पूरी प्रकृति और प्राकृतिक सम्पदा को भी नष्ट कर रहे हैं। भविष्य ही क्यों, वर्तमान में भी हम इससे दरिद्र हैं। हम अगर प्रकृति से पूर्ण दरिद्र हो गए या इस कुचेष्टा में अगर हमने मानसिक गुलामी ओढ़ ली, तो हम स्वतंत्रता को भी एक बड़े कलंक से ही सुशोभित करेंगे।
हम अपनी परम्पराओं और संस्ड्डति से भी दूर हो रहे हैं। निरन्तर गिरते सामाजिक, आर्थिक और शासनिक मूल्य तथा संचार माध्यमों के मदमस्त करने वाले दृश्य, आंधी की तरह हमारी मानसिक पतंग को उड़ाये जा रहे है - ऊंची और ऊंची। गनीमत है कि- अभी तक हमारी महान संस्ड्डति की अटूट डोर बंधी हुई है, लेकिन जब यह टूटेगी तो हमारी पतंग न जाने किन हाथों में लूटेगी? आज समय है कि हम अपनी पतंग को बचाने की कवायद शुरू करें तथा खड़ी हुई ट्रेन में बैठकर चलने का भ्रम तोड़ें। बुद्धि के सम्मुख शासक या धनपति का ही सिर झुकना चाहिये। अवैज्ञानिक बुद्धि के कारण बनी अंधविश्वासों के भीतर की दीवारों को तोड़ें और वैज्ञानिक बुद्धि की स्वतंत्र दौड़ के लिये जिज्ञासा का असीमित मैदान बनायें। यह बनता है भ्रम की निष्कलुष श्वेत बूंद में, झिलमिलाते राष्ट्र-प्रेम के बिम्ब में। हमें अवसर मिट्टी को ‘माधो’ बनाने के लिये मिला है, लेकिन हम ‘माधो’ को ही मिट्टी बनाने पर तुले हुए हैं। इसलिए, हमें ऐसी विपरीत धारणा को बदलना होगा तथा मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के उपायों को निखारना होगा।

-- साभारः शिवम् मीडिया, जयपुर (राज.) अगस्त - प्रथम, 2010

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