Tuesday, October 26, 2010

महालक्ष्मी की आराधना व उत्सव पर्व

दीप पर्व - दीपावली :
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Published in - 5th  - 20th October 2010 "Samachar Safar Edition"


भारतीय संस्कृति में वेदों को परमपिता परमेश्वर का निश्वास माना गया है (यस्मात् निश्वासिता वेदा सायण) वेद ज्ञान-विज्ञान के अक्षय भण्डार हैं। मानव की प्राचीनतम सभ्यता और संस्कृति के दर्शन वेदों मंे ही होते हैं। वैदिक ग्रन्थों में श्रीसम्पन्नता, राष्ट्रीयता और लोक कल्याण की भावना कूट-कूट कर भरी गई है। मानव उत्थान और लोकहित के कारण वैदिक साहित्य, काल और सीमाआंे को लांघकर, सार्वकालिक, सार्वजनीन एवं सार्वदेशिक बन गया है। वेदों में राष्ट्रभूमि को ही महालक्ष्मी के रूप में सम्पत्ति, समृद्धि और धन-धान्य की देवी माना गया है। लक्ष्मी (श्री) को राष्ट्र के रूप में इस प्रकार संबोधित किया गया है- ‘‘श्री रवै राष्ट्रम’’। (श ब्राह्मण 6/7/3/6)।
वास्तव में धन-धान्य की देवी महालक्ष्मी का उत्सव दीपावली, मातृदेवी - मातृभूमि की वन्दना है जिसमें दीपों का विशेष महत्व है। दीपों के बिना दीपावली की पूजा अपूर्ण है। दीपों की लोक यात्रा कहां से आरम्भ होती है, यह विद्वानों के लिए शोध का विषय है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूत्र में मातृदेवी से दीप्ति बल एवं उत्तम राष्ट्र को प्रदान करने की प्रार्थना है, ‘‘सा नो भूमिः त्विषिं वलं राष्ट्रे दधातुत्तमे।’’ (अथर्ववेद 12/5)। ऋग्वेद का श्री सूक्त। इसमें महालक्ष्मी की स्तुति में पन्द्रह ऋचाओं (मंत्रों) का समूह है। अनेक विद्वानों का अभिमत है कि यह सूक्त महालक्ष्मी के रूप में मातृदेवी (भूमि) का वंदना सूक्त है। पृथ्वी अपनी व्यापकता एवं क्षमाशीलता के लिए प्रसिद्ध है, तभी तो हमारी दैनिक प्रार्थना में हिमालय से समुद्र पर्यन्त विस्तीर्ण मातृभूमि से पद स्पर्श जन्य अपराध के लिए क्षमा याचना की गई है। ‘‘समुद्र वसने देवि पर्वत स्तन मण्डले। विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में।’’ मातृभूमि (पृथ्वी) अपनी व्यापकता विस्तार के कारण विष्णु पत्नी के रूप में प्रसिद्ध है।
वेदों में श्रीसूक्त पर चिंतन करें, मातृभूमि ;देवीद्ध व्यापक रूप में हमको धारण कर अपनी समग्रता से हमारा संवर्धन एवं पोषण करती है। उत्कृष्ट जन्में हम लोगों की (प्रजा की) यह माता है, जो हमारे अनेक अपराध होने पर भी हमको निरन्तर क्षमा करती है। (क्षमा देवी) दीर्घायु देती है, मंत्र में मातृशक्ति का इस प्रकार आव्हान किया गया है - ‘‘प्रजानां भवसि माता, आयुष्मन्त करोतु में ।।4।।’’ मातृ शक्ति अपने रजोमय रूप में हमें धन-धान्य, संतति, सद्बुद्धि, तेज, आरोग्य एवं दीर्घ जीवन प्रदान करती है। (मंत्र संख्या 7, 10, 15) श्रीसूक्त के प्रथम दो मंत्रों में महालक्ष्मी को हिरण्यवर्णा (स्वर्णवर्ण की) हिरण्यमयी (स्वर्णरूपा) एवं हरिणी (हरितवर्णा) संबोधित कर गो (पशुद्ध) अश्व (वाहन) तथा पुरूष (संतान) प्राप्त कराने की प्रार्थना की गई है। यहां महालक्ष्मी का हरा-भरा मातृभूमि (पृथ्वी) रूप मुखरित होता है। शस्य श्यामला भूमि ही स्वर्ण (वैभव) पशुधन, वाहन एवं प्रजा की संवाहिका है। श्रीसूक्त की नवमी ऋचा (मंत्र) उल्लेखनीय है- ‘‘ऊँ गन्ध द्वारां दुराघर्षा नित्य पुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां ततमिहोपह्वये श्रियम्।। (श्रीसूक्त/9)’’
महालक्ष्मी के लिए प्रयुक्त दो पदों में ‘गंध द्वारां’ व ‘करीषिणीम्’ में पृथ्वी के विशिष्ट गुण ‘गन्ध’ को रेखांकित किया गया है। माटी की सौंधी सुगन्ध के साथ उसकी गोमय (करीष, गोबर) पूर्णता हमारी कृषि प्रधान भूमि की उर्वरा शक्ति को प्रकट करती है। अतः स्पष्ट है कि श्रीसूक्त की ऋचाएं मातृ-भूमि की स्तुति के गीत हैं। श्रीसूक्त में भूख एवं प्यास से मलिन अलक्ष्मी ;दरिद्रताद्ध को नष्ट करने की कामना है। ;मंत्र सं.8द्ध हमारी ड्डषि प्रधान मातृभूमि पर प्रायः अकाल की विभीषिका मंडराती रही है। अतः मंगल रूप वनस्पति, वृक्ष संपदा की बहुलता के लिए अलक्ष्मी के हेतुक अकाल (दरिद्रता) को दूर करने के लिए जल देवता (आपः) से निरन्तर स्निग्ध (स्नेहपूर्ण) जलवर्षी रहने की प्रार्थना की गई है। (मंत्र संख्या 6, 12)। महालक्ष्मी के लिए सुवर्ण, रजतसृजा, हिरण्यमयी, हेममालिनी (ऋचा सं. 1, 13) 14 में संबोधन मातृभूमि में स्वर्ण, रजत की प्रचुरता से भौतिक सम्पन्नता एवं देश की धन सम्पन्नता की ओर संकेत करते हैं। साथ में आध्यात्मिक सम्पन्नता ही हमारी अपनी विशिष्ट पहचान है।
भारतीय संस्कृति में सृष्टि के मूल में कमल (पंकज) की अवधारणा है। कमल राष्ट्रीय पुष्प होने के साथ संपूर्ण देश की माटी (पंक) से अभिन्न रूप से जुड़ा है। शेषशायी विष्णु की कमल नाभी से ब्रह्मा एवं जगत की उत्पत्ति मानी जाती है। अतः आद्या शक्ति महालक्ष्मी का कमल से अटूट संबंध है। पद्मेस्थिता पद्मवर्ण, पद्मिनी पद्ममालिनी आदि विशेषण आद्यशक्ति के जन्मदात्री, मातृत्व, सृजनात्मक स्वरूप को प्रकट करते हैं। श्रीसूक्त में महालक्ष्मी का सूर्या (सूर्य के समान प्रकाशमान) चन्द्र, ज्वलन्ती की उपासना में रत रहने से हमारा देश ‘भारत’ कहा जाता है। लोक में दीपक को प्रकाश का वाहक कहा जाता है। दीपक ही महालक्ष्मी के षोडश पूज्य विधान मंे महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है तभी तो महालक्ष्मी का पर्व ‘दीपावली’ के नाम से लोक प्रसिद्ध है, अर्थात्- ‘दीपकों का त्यौहार’।
प्रकाश का संवाहक होने के साथ दीपक ‘प्राणतत्व’, जीवन ज्योति, जीवन ऊर्जा का भी पर्याय है। मातृभूमि की वंदना में मातृ-ऋण चुकाने में जीवनदीप को समर्पित करने पर ही मातृ-ऋण से मुक्ति संभव है। मातृभूमि के पावन मंदिर में एक दीपक का समर्पण अनेक प्रकाश दीपों को जन्म देकर प्रकाश को अमर कर देता है। विशेष ध्यान देने योग्य यह भी है कि (पौराणिक) श्रीसूक्त के अंत में ‘गायत्री मंत्र’ है। मंत्र में लौकिक समृद्धि, धन-धान्य सम्पन्नता की कामना से ऊपर उठकर अलौकिक सम्पत्ति एवं लोक कल्याणकारी सद्बुद्धि के उत्प्रेरण की बलवती प्रार्थना व्यक्त हुई है। श्री गायत्री, जगत् में एकात्म भाव जोड़कर जन-जन में आत्मा व परमात्मा के एकत्व की अनुभूति कराती है और यह भारतीय संस्कृति की अमर देन है। ‘‘महालक्ष्मी च विद्महे, विष्णु पत्नीं च धीमहिं तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।। (पौ. श्रीसूक्त)।



- पूर्व निदेशक, राज. संस्कृत अकादमी,
‘भट्ट सदन’, मंगलपुरा, झालावाड़ (राजस्थान)

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