Sunday, October 10, 2010

गान्धी को पूजिये नहीं, बल्कि समझिये

20 सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित
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मानव जाति के इतिहास में बीसवीं सदी जिन अनेकों उपलब्धियोें के लिय अविस्मरणीय बनी है उनमें से एक गांधी और मार्क्स जैसे राजनैतिक चिन्तकों की वे विचारधारायें भी रही हैं, जिन्होंने लोगों को आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय और राजनैतिक स्वाधीनता की राह दिखाई। अपने जीते जी दोनों ने असंख्य लोगों की प्रशंसा तो प्राप्त की ही, अपने अगणित अनुयायी भी बनाये। विश्व राजनीति यद्यपि आज दोनों की ही विचारधारा से विपरीत मार्ग पर चल रही है फिर भी ऐसा मानने वालों की संख्या कम नहीं है जिन्हें साम्प्रतिक शासन व्यवस्थाओं से उपजी अपनी दुरवस्थाओं से राहत पाने की आशा इन दोनों में से किसी एक में ही दिखाई दे रही है। दिन-रात यह प्रचारित करने के बावजूद कि भूमण्डलीकरण का कोई विकल्प नहीं है और इतिहास आखिरी सांस ले चुका है, लोगों की आस्था इनमें से किसी एक विकल्प पर आज भी अडिग रूप से टिकी हुई है। वे आज भी यही मानते हैं कि वर्तमान विश्व व्यवस्था अंतिम सत्य नहीं है। गांधी और मार्क्स मरकर भी न केवल उनकी स्मृतियों में जीवित हैं बल्कि उन्हें इस आशा और विश्वास से भर भी रहे हैं कि उनके पास अपनी मुक्ति के विकल्प अभी सुरक्षित हैं।
वर्तमान में दोनों के सिद्धांत की प्रांसगिकता बने रहने के बावजूद यदि हम गौर से देखें तो पाते हैं कि इन दोनों में भी परस्पर विभावनाओं की कमी नहीं है बल्कि यों कहें कि दोनों ही एक तरह से परस्पर विपरीत पथगामी है। कुछ मामलों में तो गांधी, मार्क्स से भी बहुत आगे निकले दिखलाई देते हैं। मार्क्स एक ऐसे राजनैतिक दर्शन के प्रवर्तक हैं जिसे उनके अनुयायी सोवियत संघ ने व्यवहार में लाकर न केवल दुनिया को एक बेहतर व्यवस्था से रूबरू करवाया बल्कि कुछ अन्य देशों को भी उस राह पर चलने के लिये प्रेरित किया। पर ध्यान देने की बात यह है कि मार्क्स अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में स्वयं कभी सामने नहीं आते। वे निःसन्देह एक गंभीर विचारक तो हैं, पर अपने विचारों को प्रयोग में लाकर उनकी व्यावहारिकता की जांच-परख कभी नहीं करते। जबकि, उनके विपरीत गांधी अपने हर विचार को परख कर न केवल देखते हैं बल्कि उसमें पाई जाने वाली कमी के अनुसार उसमें फेर-बदल भी करते हैं। उनका सारा जीवन विचार और कर्म अर्थात् कथनी और करनी में समरूपता लाने के प्रयासों से भरा है। वे ‘ट्रायल एण्ड एरर’ पद्धति से अपने दर्शन को निरन्तर संशोधित, संवर्धित करते रहते हैं। 
परंतु गांधी का दुर्भाग्य यह है कि करोड़ों की संख्या में अपने प्रशंसक और अनुयायी बनाकर भी वे अपने दर्शन में पूरी तरह से बहुत कम लोगों को निष्णात कर पाते हैं। आजादी मिलने के बाद जिन लोगों के हाथ में सत्ता की बागडोर आती है उनमेें अधिकतर वे होते हैं जो उनके सिद्धांतों को जानते तो हैं पर मानते नहीं, या यों कहें कि उनकी दृष्टि में वे व्यवहार्य नहीं हैं। गांधी स्वयं आजादी के बाद अधिक समय तक जिये नहीं। यदि जीते तो हो सकता है कि वे अपने ही लोगों के राजकाज के ढंग का विरोध करते या फिर सक्रिय राजनीति से अलग हो अन्य कार्यो में लग जाते। लगता है अधिक समय तक गांधी का न जीना, उनके अनुयायी राजनेताओं के लिए तो ठीक रहा ही और उनके स्वयं के लिए भी अच्छा ही रहा। अन्यथा जो कुछ होता, वह निश्चय ही अच्छा नहीं होता। मार्क्स के दर्शन के अनुरूप जो एक वैकल्पिक राज्य व्यवस्था कायम हुई वह शताब्दी के अंतिम दशक से पहले तक न केवल चलती रही बल्कि एक आदर्श व्यवस्था भी साबित हुई। अंत में वह अपने ही अंतर्विरोधों से ध्वस्त हो गई। लेकिन अफसोस है कि गांधी दर्शन को तो उनके ही अनुयायियों ने बिना किसी ट्रायल के ही खारिज कर दिया। उन्होंने उस पर चलने, उसे परख कर देखने की जहमत तक नहीं उठाई। इससे यही साबित होता है कि लोग गांधी के महात्मापन से जितने प्रभावित थे, उतना उनके राजनेता रूप से नहीं थे।
सच है कि गांधी मंे अपूर्व आकर्षण शक्ति थी। वे लाखों लोगों को तरह-तरह के आंदोलनों में भाग लेने और खतरे उठाने के लिये प्रेरित कर सकते थे। पर यह भी सच है कि उनकी बहुत सी बातों को उनके बहुत से अनुयायी दिल से स्वीकार नहीं करते थे। उनके हरिजन उद्धार को बहुत से सवर्ण नहीं मानते थे, तो उनकी हिन्दु-मुस्लिम एकता पर भी बहुत से लोगों को आस्था नहीं थी। तात्पर्य यह कि लोग उन पर जितनी श्रद्धा रखते थे, उतना उनकी बातों को नहीं मानते थे। जबकि मार्क्स अपने अनुयायियों के लिये पूजा या श्रद्धा के पात्र कभी नहीं बने। इसलिए उन्हें जानने और जानकर उनकी राह पर चलने के प्रयत्न अधिक हुए। मार्क्स को लेनिन, स्टालिन जैसे वफादार अनुयायी मिले जिन्होंने उनके विचारों को न केवल समझा व आत्मसात ही किया बल्कि उन्हें क्रियान्वित करने के लिये भी भरसक कोशिश की। जबकि गांधी को जो लोग अच्छी तरह जानते, समझते और उनके सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतार रहे थे, ऐसे लोग आजादी के बाद प्रायः सत्ता से दूर रहे या यों कहें कि उन्हें जानबूझकर सत्ता से दूर रखा गया। वहीं, जो लोग सत्ता में आये वे या तो गांधी को जानकर भी उन्हें मानने वाले नहीं थे और जो थोड़ा बहुत मानते भी थे तो वे इतने दृढ़व्रती नहीं थे कि सत्ता को अपने अनुसार मोड़ सकते या न मुड़ने पर उसे ठोकर मार देते।
गांधी के साथ घटी इस ट्रेजडी का ही परिणाम यह है कि आज भी उनके प्रति श्रद्धा-सम्मान में विशेष कमी नहीं आई है। पर उन्हें गहराई से जानना अभी बाकी है और जब तक उनके लिखे का गंभीर अध्ययन नहीं होता है, तब तक गांधी दर्शन की, जो मूलतः भारतीय दर्शन का ही संशोधित संवधर््िात रूप है, उपयोगिता को नहीं समझा जा सकता। यों तो गांधी वाङ्मय हजारों पृष्ठों में समाहित है लेकिन यदि उनकी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ को ही ध्यानपूर्वक पढ़ लिया जाये तो गांधीवाद की मूल अवधारणा की पर्याप्त जानकारी मिल सकती है। गांधी, ग्राम स्वराज से हिन्द स्वराज की ओर बढ़ते हैं। वे ग्राम को एक ऐसी इकाई मानते हैं जिसे पुष्ट किये बिना देश को मजबूत बनाया ही नहीं जा सकता। उनके लिये गांव इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वह भारत के प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं का न केवल परिपोषक है बल्कि उसके अनुरूप जीवन जीने का एक आदर्श उदाहरण भी है। महान दार्शनिक, ऋषि, मुनि, विद्वान, चिन्तक, तपस्वी सब अरण्य में ही रहे हैं और वही रहकर उन्होंने गंभीर अध्ययन, चिंतन-मनन किया है। उनके विचारों ने आम लोगों के जीवन को प्रभावित व नियंत्रित किया है। उस अरण्य संस्कृति से विरत होकर जैसे जैसे हम विकास की ओर अग्रसर हुए हैं, वैसे वैसे विकास और पर्यावरण के बीच का द्वन्द्व बढ़ता गया है।
दरअसल, भारत की मूल संस्कृति संरचना को छिन्न-भिन्न कर ब्रिटिश सरकार ने अपनी हुकूमत चलाने के लिये जिस तरह की प्रशासनिक यांत्रिकी (मैकेनिज्म) बनाई थी वह न केवल शोषण व भेदभाव पर आधारित थी बल्कि उसके पीछे वह पश्चिमी दृष्टि भी थी जिसके मूल्य भारतीय मूल्यों से मेल नहीं खाते थे। उस सरकार ने लगातार अपनी आवश्यकता के अनुरूप हमारी शिक्षा व्यवस्था को बदल कर जो शिक्षितों की फसल तैयार की थी वह शरीर से बेशक भारतीय थी, मन उसका अंग्रेजों जैसा था। आजादी के बाद शासकों के चेहरे बेशक बदल गये, लेकिन जो लोग सत्ता में आये उनकी नजरों में आदर्श व्यवस्था वही समाई रही जो तत्कालीन योरोप में खास तौर पर इंग्लैण्ड में फल-फूल रही थी। यही वजह थी कि यहां के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की हार्दिक इच्छा इस देश को उन देशों के बराबर खड़ा करने की रही, न कि इसे अपनी तरह जीने देने की अथवा जो कुछ अंग्रेजी शासन काल में उनके द्वारा बिगाड़ दिया गया था उसे सुधारने-ठीक करने की रही। इस देश को अपनी परम्परा में लौटाने के लिये गांधी ने जो कुछ ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा था उस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया। सन् 1909 में लिखी उनकी यह ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक - भारतीय समाज क्या है, उसकी व्यवस्थाएं किस प्रकार की हैं, कैसे वह व्यक्ति को आत्मानुशासन के लिये प्रेरित, प्रशिक्षित करता है - इन सब बातों पर विस्तार से प्रकाश डालती है। 
पर्यावरण और विकास के जिस द्वन्द्व की प्रायः चर्चा होती रहती है उसका समाधान यदि कहीं मिलता है तो वह इस पुस्तक के पृष्ठों पर अंकित है। यह पर्यावरण की संस्कृति का एक ऐसा ग्रन्थ है जो मनुष्य के उससे रिश्तों को व्याख्यायित करता है। उसे सच्चे सुख की अलौकिक अनुभूति के मार्ग पर अग्रसर करता है। इसके बताये अनुसार यदि भारतीय समाज व्यवस्था के साथ राज्य व्यवस्था का भी ठीक तरह से तालमेल हो पाता तो हर गांव को दिल्ली से निर्देशित, नियंत्रित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जबकि होना यह चाहिए था कि गांवों की समेकित योजनाएं देश के विकास की रूपरेखा तैयार करती। ‘हिन्द स्वराज’ ग्राम इकाई को सशक्त व आत्मनिर्भर बनाने पर जोर इसीलिये देता है ताकि वह देश की नियामक बने, सत्ता की सूत्रधार बने, न कि उसकी पिछलग्गू व उसकी मेहरबानी की मोहताज। शासन संचालन की जो शिक्षा-दीक्षा प्राचीन काल में दी जाती थी वह वर्तमान प्रबन्धन की शिक्षा जैसी नहीं थी। उसमें लोकमानस की समझ को सर्वाधिक महत्व दिया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समाज और राज्य के संबंधों व कर्त्तव्यों का जो सांगोपांग विवेचन है उसके सामने लोकशाही की प्रगतिशीलता को भी नतमस्तक हो जाना पड़ता है। क्योंकि आज वह प्रगतिशील लोकतांत्रिकता देशवासियों का विश्वास खोती जा रही है। पुरानी शासन व्यवस्था में राज्यधर्म जहां लोकधर्म का नियामक था वहीं राज्य वास्तविक अर्थो में समाज से नियंत्रित था। राज्यसत्ता की भी अपनी मर्यादाएं थी। वह उनका उल्लंघन नहीं कर सकती थी। ऐसा करना एक तरह से समाज का अनादर था, जिसे किसी भी कीमत पर नहीं होने दिया जा सकता था।
गांधी का चिंतन पारम्परिक या प्रचलित अथवा आजकल जिसे मुख्यधारा कहा जाता है उसकी सोच से बिल्कुल अलग बल्कि उल्टा था। वे धारा के विरूद्ध चलने का प्रयोग कर रहे थे। इसीलिये ब्रिटिश हुकूमत के विरोध का उनका अपना अंदाज था। वे ताकत को ताकत से पराजित करने की वकालत नहीं करते थे। क्योंकि उन्हें पक्का यकीन था कि सरकार की ताकत के मुकाबले जनता की ताकत बहुत कमजोर है। उसे तो अहिंसात्मक प्रतिरोध से ही हराया जा सकता है। रास्ता लंबा था और लोगों को भावनात्मक संघर्ष के लिये बहुत समय तक संकल्पबद्ध नहीं रखा जा सकता था। इसीलिये उन्होंने राजनैतिक लड़ाई के साथ समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरूद्ध भी लोगों को आंदोलनरत किया, ताकि संघर्ष का वातावरण निरन्तर अटूट बना रहे। स्मरणीय है कि ‘हिन्द स्वराज’ में गांधी ने जो कुछ लिखा उसका कई क्षेत्रों में विरोध भी हुआ। लोगों ने उन बातों का भी मजाक उड़ाया जो गांधी के एजेन्डे में प्रमुख स्थान पाये हुए थीं। लेकिन गांधी इस विरोध, उपहास से न विचलित हुए और न क्षुब्ध। क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा तो होना स्वाभाविक है। वे अपनी बात अधिक दृढ़ता के साथ स्पष्ट करते रहे और अपने जीवन में उतार कर यह साबित करते रहे कि जिन्हें लोग खाम-ख्याली मानते हैं वे दरअसल ऐसी हकीकत है जिनकी उपयोगिता को देखा-परखा जा सकता है।
वे जिस स्वतंत्र भारत की कल्पना करते थे उसकी रूपरेखा कुछ इस प्रकार की थी- स्वराज में रेलें होंगी, परंतु उनका उद्देश्य भारत का सैनिक या आर्थिक शोषण नहीं होगा बल्कि उनका उपयोग आंतरिक व्यापार बढ़ाने और आमलोगों के यातायात को सुविधाजनक बनाने के लिये होगा। कोई यह आशा नहीं करता कि स्वराज में रोगों का सर्वथा अभाव हो जायेगा। इसलिए स्वराज में अस्पताल तो हांेगे, पर उनका उद्देश्य भोग विलास के रोगियों की जगह दुर्घटनाग्रस्त लोगों का इलाज पहले और अधिक करना होगा। चरखे के रूप मंे यंत्र भी होंगे, कारखानें भी होंगे लेकिन उनका उद्देश्य जनता की आवश्यक जरूरतें पूरी करना होगा, न कि भोग विलास की सामग्री तैयार करना या उनका शोषण करना। सेना का उद्देश्य देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा करना होगा, न कि अन्य देशों से लड़कर उन्हें गुलाम बनाना होगा। स्वराज में कानून भी होंगे और अदालतें भी होंगी, लेकिन वे लोगों की रक्षा के लिये उन्हें हर तरह के अन्याय से बचाने के लिये होंगी। गांधी के इस तरह के विचार निश्चय ही तब भी लोगों को अटपटे लगते थे और आज भी लगते हैं। पर ध्यानपूर्वक देखें तो हम मान जायेंगे कि पर्यावरण और विकास के लिये इसी तरह के विचारों की जरूरत है। वे जिस तरह के समाज और जीवन की अपेक्षा करते हैं उसे इसी तरह पाया व बनाये रखा जा सकता है।
लोगों को यह शंका हो सकती है कि क्या इन विचारों के अनुरूप समाज निर्मित किया जा सकता है या फिर यह गांधी का ऐसा स्वप्न है जो देखने में तो लुभाता है पर जिसकी हकीकत कुछ भी नहीं है। इस शंका का सीधा उत्तर तो देना कठिन है। क्योंकि जिस विचार को व्यवहार में लाने से पहले ही खारिज कर दिया गया हो उसके पक्ष में भला क्या कहा जा सकता है। लेकिन यह सचाई तो आंखों में देखी जा सकती है कि गांधी के रास्ते को न अपनाकर दुनिया जिस राह पर चल रही है उसी पर आंख मूंद कर चलते हुए - क्या हम प्रसन्न व संतुष्ट है? इसका उत्तर यदि ना में है तो फिर क्या हमें गांधी के मार्ग पर संदेह करना चाहिए? जबकि गांधी के विचार उन जीवन मूल्यों को आगे रखते हैं जो मानवोन्मुख हैं। ऐसी व्यवस्था और प्रौद्योगिकी जो मानव प्रकृति या सामान्य सजीव प्रकृति से भिन्न न हो, यदि अपनाई जाती है तो उसमें वह उबाऊपन नहीं रहेगा जिससे आज हम बुरी तरह से ग्रस्त है। गांधी पर बार-बार यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे विज्ञान, प्रौद्योगिकी और प्रगति के विरोधी थे। लेकिन ऐसा कहने वाले अनिवार्यतः वे लोग हैं जिन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ को नहीं पढ़ा है। जबकि गांधी ‘हिन्द स्वराज’ में इन आरोपों का न केवल स्पष्ट जवाब देते हैं बल्कि अपने मत का औचित्य भी प्रतिपादित करते हैं। इनमें एक यह भी है कि यदि कोई एक भी निर्धन असहाय व्यक्ति की सहायता के लिये कुछ करता है उसे अपनाने में गांधी कोई बुराई नहीं देखते। 
लेकिन जब ये सम्पन्न लोगों के हित में काम करते हैं और अधिकतर जनसाधारण के शोषण-दमन का उपकरण बनते हैं या उन्हें अपना दास बनाते हैं तो गांधी उन्हें किसी की भी कीमत पर स्वीकारने को तैयार नहीं होते। ‘हिन्द स्वराज’ बार-बार हमारे सामने यह सवाल रखता है कि आखिर हम किस तरह की जीवन शैली अपनाना चाहते हैं? वर्तमान विज्ञान, प्रौद्योगिकी और विकास हमें किस ओर ले जा रहे हैं? क्या वही हमारा गंतव्य है या यह भी हो सकता है जिसमें प्रकृति हमारी जननी होती है और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी हमारे सहायक होते हैं तथा विकास वस्तुओं और संसाधनों की सुविधाजनक उपलब्धता में नहीं, बल्कि जीवन को उन्नत व श्रेष्ठ बनाने में होता है। यह एक अलग तरह की जीवन दृष्टि बेशक हमें लग सकती है पर वास्तव में यह वही जीवनदृष्टि है जो मानवोन्मुखी है, प्रकृति की सहचर है और सर्वजन के हित को समर्पित है। 
 

- सुरेश पंडित
- 383, स्कीम नं.2, लाजपत नगर, अलवर - 301001 (राज.)
मो0ः 92149-45156 एवं 80587-25639

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