Sunday, October 17, 2010

राष्ट्रीय नेतृत्व का गहराता संकट! ( 20 सितम्बर 2010 में प्रकाशित)

गतांक से आगे - (2)
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इसी प्रकार से बाढ़, सूखा, अकाल या अन्य आपदाओं के समय पर मंत्रियों व नौकरशाहों के काफिले विमान, हेलीकॉप्टर और कारों का भरपूर प्रयोग करते हैं। नतीजन, जितनी राहत पीड़ितजनों को नहीं मिल पाती है, उससे अधिक खर्च इन मंत्रियों व नौकरशाहों की यात्राओं पर हो जाता है। यानि, भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाने की जिम्मेदारी जिन लोगों और संस्थाओं पर है, वे खुद ही भ्रष्टाचार रूपी समुद्र में गोते लगाकर आनंद लाभ प्राप्त कर रहे हैं। पहले के समय में, भ्रष्टाचार में अपना नाम आने पर नेता व नौकरशाह और उनके परिवारजन शरमाते थे और उन्हें समाज में बुरी नजर से देखा जाता था, वहीं अब ये भ्रष्टाचारी व उनके परिवारजन अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं और समाज में भी वह सम्मान के पात्र बने हुए हैं क्योंकि भ्रष्टाचार से एकत्रित हुई कमाई से वह ‘दान’ देकर दानवीर व भामाशाह जो बने हुए हैं। बल्कि अब तो ‘भ्रष्टाचारी’ भी लामबंद होने लगे हैं जिसका ताजा प्रमाण राजस्थान प्रदेश है जहां पर ‘नरेगा’ कार्यो के हुए ‘सामाजिक अंकेक्षण’ के दौरान उजागर हुए भ्रष्टाचार के मामलों में सारे भ्रष्टाचारी ही इस ‘सामाजिक अंकेक्षण’ के खिलाफ एकजुट होकर अपना विरोध जाहिर कर चुके हैं और इन भ्रष्टाचारियों के दबाव में आकर प्रदेश की वर्तमान कांग्रेस सरकार ने ‘सामाजिक अंकेक्षण’ को रोक दिया है। इस तरह से, भ्रष्टाचार करना अब इन भ्रष्टचारियों का ‘संवैधानिक अधिकार’ बनता जा रहा है और आमजन का दुर्भाग्य कि उसे यह सब खामोश रहकर ‘झेलना’ पड़ रहा है। बिहार के बहुचर्चित ‘चारा घोटाला’ मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी विचारणीय है- ‘भ्रष्टाचारियों को लैम्प पोस्ट से लटका कर फांसी दे देना चाहिए।’ सुप्रीम कोर्ट की यह खुली व कठोरतम टिप्पणी हमारी न्यायपालिका की वेदना और आक्रोश को ही उजागर कर रही है।
कहने को तो, हमारा लिखित भारतीय संविधान, हमारे देश को एक ‘लोकतांत्रिक राष्ट्र’ घोषित तो करता है, लेकिन सत्ता में बैठे हुए हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के चाल व चरित्र को देखें तो निश्चित ही राजतंत्रीय व्यवस्था के राजा-महाराजा व जागीरदारों के चाल-चरित्र भी शरमा जाये। पंचायती राज और स्थानीय निकायों की बैठकों से लेकर विधानसभाओं व संसद की बैठकों में होने वाली आरोप-प्रत्यारोप की भाषा ही नहीं, बल्कि मारपीट व गाली-गलौज भी एक ‘परम्परा’ सी बन गई है। घरों में बैठकर टी.वी. पर  जनप्रतिनिधियों के इन तमााशों को देखने वाले बच्चे व युवा पीढ़ी इन घटनाओं से क्या सीख लेंगे, स्वतः ही अनुमान लगाया जा सकता है।
अब तो यह कहना भी मुश्किल होता जा रहा है कि- अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है या राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है ? ‘धर्मनिरपेक्षता’ को संविधान का मूलभूत तत्व माना गया है पर तमाम राजनेता धर्म स्थलों पर जाकर पूजा-अर्चना करने में भी अपना राजनीतिक हित साध रहे हैं। जिसे यदि उनका व्यक्तिगत आग्रह समझकर दरकिनार कर भी दिया जाए तो भी यहां चाटुकारिता की हद तक जाकर नेताओं को ईश्वर बना देना और उनका नाम-जाप करना, ‘लोकतंत्र’ का इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता। आपातकाल के दौरान, उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकान्त बरूआ का यह घोषित कथन - ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ चाटुकारिता व गुलामीयत का ही प्रतीक रहा है मानो देश में लोकतंत्र नहीं बल्कि सामंतवाद या राजतंत्र का साया हो।
तमिलनाडू में एम.जी. रामचन्द्रन की मृत्यु के बाद चेन्नई में उनका मंदिर बनवाया गया, जिसमें उन्हें देवता के रूप में स्थापित किया गया। वहीं, तमिलनाडू में ही जयललिता को पोस्टरों में ‘काली मां’ के रूप में दिखाया गया, तो उत्तर प्रदेश में मायावती ने कहा कि मैं ही माया (लक्ष्मी) हूं। राजस्थान में भी गत भाजपा शासित सरकार की मुखिया मुख्यमंत्री वसुन्धरा सरकार के तीन साल पूरे होने के अवसर पर उनके सेवकों द्वारा जारी किये गये कैलेण्डर में वसुन्धरा राजे को ‘अन्नपूर्णा देवी’ और भाजपा के शीर्ष नेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व राजनाथ सिंह को ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में दर्शाया गया। उधर, मुरादाबाद में कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी को ‘दुर्गा मां’ की वेशभूषा में भ्रष्टाचार व आतंकवाद का संहार करते हुए दिखाया गया, तो जबलपुर में भी एक पूर्व विधायक ने सोनिया गांधी को ‘रानी लक्ष्मीबाई’ के रूप में पोस्टर में दिखाया। महाराष्ट्र में भी पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को गोवर्धन पर्वत उठाते हुए ‘श्रीकृष्ण’ के रूप में दिखाया गया।
ऐसे ही न जाने कितने उदाहरण है जो चाटुकारिता व गुलामीयत में पारंगत सेवकों से भरे हुए हैं और जो राजतंत्रीय व सामंती समाज की याद दिलाते हैं। जनता के बीच जाकर उनके दुख-दर्द को सुनने और उनका उपचार करने की बजाय शीर्ष नेताओं की वंदना करना ही अब राजनीति में प्रवेश कर कुर्सी पाने का ‘शार्टकट’ तरीका बन गया है। ‘चालीस राजनीति’ भी इसी चाटुकारिता व गुलामीयत की देन व प्रतीक है।
अब जरा संवेदनशील होकर इन संदर्भो के परिप्रेक्ष्य मंे देश के कर्णधारांे की कारगुजारियांे पर गौर करें कि- आये दिन अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, टी.वी. और मंचों पर देश का युवावर्ग, किसान, मजदूर, कारीगर जब इन तमाम बातों को सुनकर या पढ़कर गुनेगा तो उनके मानस-पटल पर क्या प्रभाव अंकित होगा? इन कर्णधारों के प्रति उनकी क्या धारणा बनेगी? जब देश का उच्च पदस्थ वर्ग ही भ्रष्टाचार के आरोपों के संशय में कैद हो और उनका आचरण भी लोगों की निगाह में साफ सुथरा न हो तो फिर उस देश का भविष्य क्या होगा? इन्हीं हालातों को देख व महसूस कर डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था- ‘यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो इसकी शुरूआत उच्च पदस्थ लोगों से होनी चाहिए।’
किन्तु दुर्भाग्यवश, आज इस देश का नेतृत्व वर्ग अपने स्वार्थ में अंधा होकर अपने पद का सारा फायदा अपनों के लिये ही बटोर रहा है। वह चाहे जाति के रूप में हो, भाई भतीजावाद के रूप में हो, या क्षेत्रवाद के संदर्भ में हो - यह सब दायरा संकीर्णता व स्वार्थ का है। आज चूंकि सारे लोग इसी संकीर्णतावादी नजरिये में कैद है सो ‘हमाम में सब नंगे हैं’ की तर्ज पर एक-दूसरे की कमजोरियों और बुराईयों को अनदेखा ही कर रहे हैं। निश्चिततः आज स्वस्थ एवं समग्र नेतृत्व का संकट देश पर मंडरा रहा है और जब तक स्वस्थ नेतृत्व नहीं पैदा होगा, भारत की धरती पर से जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, अराजकता, आतंकवाद का खात्मा नामुमकिन है।
यह मंथन का विषय है कि- हमारे साथ ही आजादी पाये तमाम राष्ट्र, विकास के कई पायदान चढ़ गये, पर हमारे भारत देश में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाई - आखिर क्यों? वर्तमान के इन तथाकथित राष्ट्रीय कर्णधारों की आवाजों में भी ‘दम’ नहीं है, क्योंकि ‘दम’ भी सुसंस्कार, सुविचार और सुचरित्र से ही आता है, जबकि ये कर्णधार तो आत्मिक रूप से पूर्णतया ही खोखले बने हुए हैं। इसे राष्ट्र की बदकिस्मती ही कहा जायेगा कि इन नेताओं की कोई नीति नहीं है, नैतिकता नहीं है, चरित्र की पवित्रता नहीं है, समग्रता नहीं है, समदर्शिता नहीं है। ये ‘राजनीति’ को सि(ांत के तहत नहीं, बल्कि कुटिल नीति के तहत चला रहे हैं, क्योंकि ये अवसरवादी हैं।
हर नेतृत्व अपने सिंहासन को बचाये रखने के लिये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता का नारा लगाता जरूर है, किन्तु इन सबकी मानसिकता एक जैसी ही ‘मक्कारी’ भरी है। आज सभी दलों व नेताओं का एकमात्र लक्ष्य सत्ता है और सत्ता की इस कुर्सी तक पहुंचने के लिये ये कभी राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता व समाजवाद की सीढ़ी लगा लेते हैं, तो कुछ को अपनी राजनैतिक स्वार्थपूर्ति के लिए ‘राम-नाम’ की सीढ़ी लगाने में भी परहेज नहीं है।
स्पष्ट रूप से आज देश में दो वर्ग आमने-सामने बने हुए हैं, इनमें एक- संतुष्ट वर्ग है और दूसरा- असंतुष्ट वर्ग है। संतुष्ट वर्ग- चूंकि राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, सांस्ड्डतिक और धार्मिक हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बना चुका है इसलिए वह अपने यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिये कटिबद्ध बना हुआ है, जिसके लिये चाहे उसे कितने ही झूठ का सहारा लेना पड़े। जबकि, राष्ट्र-हित में यह जरूरी है कि- यह ‘संतुष्ट वर्ग’ आम लोगों को ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ के अनुसार उपदेश देने की बजाय अपनी कथनी-करनी का अंतर स्वयं ही मिटाकर ईमानदारी, चरित्र, कर्मठता, अनुशासन को अपने आचरण में उतारे।
जिस दिन यह सुविधाभोगी वर्ग संकल्पबद्ध होकर त्याग का आदर्श उपस्थित कर देगा, उस दिन देश-समाज की दशा सुधरने में वक्त नहीं लगेगा। वहीं, दूसरी तरफ बना हुआ असंतुष्ट वर्ग का नेतृत्व भी सत्ता की कुर्सी के लिये लोगों की भावनाओं का शोषण व दोहन कर रहा है और वह अभी तक समाज को कोई नवीन विचार नहीं दे पाया। इसलिए- जब तक विचार पैदा नहीं होंगे, तब तक समाज में न तो बदलाव आयेगा और न ही क्रांति।       ( समाप्त )




                









- राम शिव मूर्ति यादव
स्वास्थ्य शिक्षाधिकारी (सेवानिवृत्त)
ग्राम: तहबरपुर,
पोस्ट: टीकापुर - 276208
जिला: आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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