Saturday, October 16, 2010

कौन तय करेगा - आतंकवाद के रंग व धर्म की पहचान?

==============================
20 सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित
==============================
जब लालकृष्ण आडवाणी से लेकर अरूण जेटली तक यह फरमाते हैं कि आतंकवाद का कोई रंग और धर्म नहीं होता, तो हैरत ही होती है। क्योंकि, आडवाणी जब देश के गृह मंत्री थे तब उन्होंने लोकसभा में आतंकवाद पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि- ‘सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि सारे आतंकवादी मुसलमान हैं।’ मैंने तब उस समय ही एक हिन्दी अखबार के अपने स्तंभ में लिखा था कि- आडवाणी की बात गलत नहीं है, यह वाकई इत्तिफाक है कि अब तक गिरफ्तार किए गए सभी आतंकवादी मुसलमान हैं। आतंकवादी संगठनों के नाम भी इस्लामी हैं, जैसे- लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, सिपाह-ए-सहाबा, जैश-ए-मोहम्मद आदि। लेकिन सवाल यह है कि- क्या कुछ मुसलमानों की मानवता विरोधी गतिविधि के लिए सारी मुसलमान कौम को कसूरवार ठहराना दुरूस्त है? क्या नापाक उद्देश्यों के लिए कुछ तथाकथित मुसलमानों का अपने आतंकवादी संगठनों को इस्लामी नाम देने का यह मतलब निकाला जाए कि इस्लाम आतंकवाद को आमंत्रण देता है? जो जिस धर्म का नाम लेकर आतंक फैलाता है वह उस धर्म और समुदाय का प्रतिनिधित्व भी करता है - यह नजरिया न तो उस समय मेरा था न आज है। लेकिन भाजपा समेत समस्त संघ परिवार का दृष्टिकोण सदा यही रहा है।
गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने पिछले दिनों पुलिस के आला अफसरों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्हें ‘भगवा आतंकवाद’ से खबरदार रहने को कहा। बस, भाजपा और शिवसेना उनकी इस बात पर आग बबूला हो गए। चिदंबरम के इस वक्तव्य से मैं भी सहमत नहीं हूं, इसलिए कि ‘भगवा रंग’ कण-कण में भगवान का दर्शन करने वाले योगियों और साधुओं की भी पहचान है और उन स्वामी अग्निवेश का वस्त्र भी भगवा है जिन्होंने अपना जीवन भाईचारे के संदेश को आम करने में लगा दिया है। इसलिए, ‘भगवा रंग’ आतंक का परिचायक नहीं हो सकता, जिस तरह से ‘हरे रंग’ को कुछ मुसलमानों के आतंकवाद से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। चित्रकला में भी रंगों की अपनी भाषा है, उनके अपने अर्थ है। भगवा या केसरिया उत्सव का रंग है, यह त्याग का भी रंग है। लेकिन क्या केसरिया रंग आज उस पारंपरिक अर्थ को लेकर चल रहा है? - बिल्कुल नहीं। लेकिन जिस तरह जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का नाम सुनते ही गैर-मुसलिमों की कल्पना में कुछ भिंची हुई मुट्ठियां और लहराती बंदूकें नजरों के सामने घूम जाती है, उसी तरह भगवा रंग अब साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दयानंद पांडे की भी याद करा देता है।
दरअसल, रंगों को अर्थ हम अपने कार्यकलाप से देते हैं। अगर कातिलों का गिरोह सफेद रंग को अपनी पहचान बना ले, तो अमन और सुकून का प्रतीक समझा जाने वाला यह रंग भी हमारे अंदर भय का संचार कर देगा। भगवा रंग का अपना अर्थ स्थापित है। लेकिन इस रंग को आतंकवाद का परिचायक उन मुसलमानों या ईसाईयों ने नहीं बनाया, जिनसे अतिवादी हिन्दुओं को नफरत है। इस रंग की पवित्रता को प्रज्ञा सिंह ठाकुर नाम की उस महिला ने धूमिल किया है जो स्वयं को साध्वी कहती है, इसे दयानंद पांडे नाम के उस व्यक्ति ने दागदार किया है जो खुद को शंकराचार्य कहता है। जिस तरह से भगवा रंग धारण कर लेने से कोई साधु या संत नहीं बन जाता, इसी तरह भगवा रंग का दुशाला ओढ़ लेने से कोई हिन्दू आतंकवादी भी नहीं बन जाता। अब शायद भाजपा को यह बात समझ में आ रही होगी। जिसे पिछले दस वर्षो से सेक्युलर बुद्धिजीवी भाजपा से कह रहे थे कि बम धमाकों में लिप्त मुसलमानों के कारण तमाम मुसलमानों को लांछित करना ठीक नहीं है, तो यह बात भाजपा के गले नहीं उतरती थी। यही नहीं, बल्कि आडवाणी ने भी लोकसभा में आतंकवाद और मुसलमानों के बारे में यह बेतुका निष्कर्ष पेश किया था, जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है।
भाजपा की तरह शिवसेना भी चिदंबरम के बयान पर नाराज है। उद्धव ठाकरे ने तो गृह मंत्री चिदंबरम से इस्तीफे की मांग की है। विचित्र बात है कि जिस शिवसेना ने सबसे पहले ‘हरा विष’ जैसा शब्द प्रयोग किया था, आज ‘भगवा आतंकवाद’ कहे जाने पर उसे भी आपत्ति हो गई है। उद्धव ठाकरे से मेरा सवाल है कि- अगर ‘हरा विष’ हो सकता है तो ‘भगवा आतंकवाद’ क्यांे नहीं? उनके पिता ने ही यह शब्दावली उस समय बनाई थी जब 1972 में मुंबई महानगर पालिका में मुसलिम लीग ने पहली बार चौदह सीटें प्राप्त की थी। वह चुनाव ‘वंदे मातरम्’ के एक निरर्थक विवाद पर लड़ा गया था। तब शिवसेना ने ललकारा था कि वंदे मातरम् पढ़ना होगा, तो मुसलिम लीग ने जवाब में कहा था कि वंदे मातरम् नहीं पढ़ेंगे। उस वक्त किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि शहर की बिजली, पानी और सफाई की समस्याओं का वंदे मातरम् से क्या संबंध हो सकता है? तब मुसलिम लीग की सफलता को बाल ठाकरे ने ‘हरा विष’ कहा था। उस समय उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उन्हीं की तर्ज पर ‘भगवा आतंकवाद’ जैसा शब्द का प्रयोग सामने आ सकता है।
आतंकवाद को मुसलमान भी कोई ‘पहचान’ नहीं देना चाहते और हिंदुआंे को, खासतौर पर भाजपा और शिवसेना को उसे भगवा रंग देने पर आपत्ति है। कांग्रेस के दो नेताओं ने भी चिदंबरम के बयान पर विरोधाभासी बयान दिए हैं। भाजपा और संघ परिवार के कट्टर विरोधी दिग्विजय सिंह ने तो दो टूक शब्दों में सवाल किया है कि- अगर भगवा आतंकवाद जैसी कोई चीज नहीं है तो फिर भाजपा यह बताए कि मालेगांव, मक्का मस्जिद और अजमेर के धमाकों में संघ परिवार के ही लोग क्यों शामिल थे? यह सवाल भाजपा के लिए उतना ही टेढ़ा है जितना यह कि- महात्मा गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे और विक्रम सावरकर हिन्दुत्ववादियों की जिस विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध थे, वह आरएसएस के विचारक हेडगेवार की विचारधारा का रूप थी या नहीं? दिग्विजय सिंह के सवाल का भाजपा के पास कोई जवाब नहीं है। अलबत्ता कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने यह बयान देकर भाजपा को खासी राहत पहुंचाई है कि- ‘आतंकवाद का कोई रंग और धर्म नहीं होता। यह किसी भी राजनीतिक पार्टी की प्राथमिकता नहीं हो सकती।’ बात तो ठीक है, लेकिन न तो भाजपा को यह कहने का अधिकार है और न उसकी सफाई मंे किसी कांग्रेसी को ऐसा बयान देने की ही आवश्यकता थी।
फिर भी, भाजपा से यह सवाल तो करना ही होगा कि- अगर वह हिंदू आतंकवाद में विश्वास नहीं रखती तो योगी आदित्यनाथ और आडवाणी मालेगांव बम धमाकों की अभियुक्त प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दयानंद पांडे के हक में लामबंदी क्यों कर रहे थे? उस समय आडवाणी ने भी कहा था कि- ‘यह हिन्दुओं को बदनाम करने का षड्यंत्र हैऋ कोई हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता।’ तो, क्या इसका दूसरा मतलब यह नहीं था कि हिंदुओं के अलावा कोई भी आतंकवादी हो सकता है। भाजपा के नेता तो शायद भूल गए होंगे, लेकिन हमें याद है कि जब ओडीशा में दारासिंह नाम के बजरंग दल के एक गुंडे ने फादर ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम बच्चों को जिंदा जला कर मार डाला था, तो पूरा देश गम और गुस्से से चीख उठा था। तब, तमाम राजनीतिक पार्टियों ने भी उस बर्बरता की कड़े शब्दों में निंदा की थी और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। उस समय आडवाणी गृहमंत्री थे। जिन्होंने लोकसभा मंे बजरंग दल के बचाव में कहा था कि- ‘वे बजरंग दल और उसकी विचारधारा से अच्छी तरह वाकिफ है, बजरंग दल का कोई कार्यकर्ता ऐसा घिनौना अपराध नहीं कर सकता।’ कितनी अफसोसजनक बात थी कि देश का गृहमंत्री अभियुक्तों की गिरफ्तारी से पहले ही उन्हें क्लीन चिट दे रहा था।
क्या हमें आडवाणी को यह याद दिलाना होगा कि दारासिंह की गिरफ्तारी के बाद सर्वोच्च न्यायालय तक उसका मुकदमा लड़ने के लिए ओडीशा के एक भाजपा सांसद ने खुलेआम पैसा इकट्ठा किया था। क्या भाजपा के तमाम नेता बतायेंगे कि- तब उनकी पार्टी ने उस सांसद के विरूद्ध क्या कार्रवाई की थी? आडवाणी कहते हैं कि कोई हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता, वह इतना निर्मम नहीं हो सकता, तो फिर जो मुसलमान आज तक यहीं मानते हैं कि कोई मुसलमान नाहक किसी की जान नहीं ले सकता, तो वे भी अपनी जगह दुरूस्त है। चिदंबरम ने भले ही एक ऐसा वाक्य कहा हो, जो उन्हें गृहमंत्री की हैसियत से नहीं कहना चाहिए था, लेकिन उनके इसी वाक्य ने भाजपा को भी अपनी खाल बचाने पर मजबूर किया है। वरना वह आतंकवाद को इस्लामी ही कहती आ रही थी। लेकिन, आज उन्हीं आडवाणी को यह कहना पड़ रहा है कि- ‘वे हर तरह के आतंकवाद की निंदा करते हैं।’ जबकि इससे पहले वे ही तमाम भगवाधारियों को पवित्र साबित करने पर तुले रहते थे। लेकिन अब गृहमंत्री पी.चिदंबरम के बयान ने हिन्दू आतंकवाद ही नहीं, बल्कि हिन्दुत्ववादियों को भी बेनकाब किया है।
( साभारः जनसत्ता, दिल्ली ) - 5 सितम्बर 2010

No comments:

Post a Comment