Saturday, October 16, 2010

‘गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय...’ का बदलता अर्थ ‘शिक्षक खड़ा बाजार में - खोज रहा सम्मान’

संदर्भः शिक्षक-दिवस -
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20 सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित
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भारत निर्माण में विकास और भ्रष्टाचार का रिश्ता अब बच्चे-बच्चे की जुबान पर है, लेकिन यहां राजस्थान में शिक्षक और शिक्षा का क्या भला-बुरा तालमेल है - इसे बहुत कम लोग जानते हैं। हजारों स्कूल हैं, लाखों अध्यापक हैं, तरह-तरह के शिक्षण संस्थान है और कोई 40 तरह के शिक्षक संघ है। आश्चर्य तो यह है कि 5 सितम्बर को ‘शिक्षक दिवस’ मनाते हुए डॉ. सर्वपल्ली राधाड्डष्णन को विस्थापित करके शिक्षकों ने राजीव गांधी को स्थापित कर दिया है। राजस्थान में शिक्षा पर सर्वाधिक हजारों-करोड़ों रूपया हर साल खर्च होता है, लेकिन उसके बाद भी शिक्षा विभाग को ‘तबादला उद्योग’ के रूप में ही जाना जाता हैं राज्य कर्मचारियों में सबसे बड़ी शिक्षक सेना है और कोई 7 प्रकार के शिक्षा मंत्री है तथा पर्दे के पीछे एक सुपर शिक्षा मंत्री भी है, जो मुख्यमंत्री कार्यालय की मार्फत राजस्थान में शिक्षक और शिक्षा की दशा, दिशा व संभावनाएं तय करते हैं। शिक्षा और साक्षरता के इस कुटीर उद्योग में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के मंत्री ही एक ऐसे (पूर्व शारीरिक शिक्षक) है जो पिछले दो साल से समानीकरण और एकीकरण की अलख ही जगा रहे हैं तथा शिक्षा विभाग को अराजकता से बाहर निकालने का कौशल दिखा रहे हैं।

‘शिक्षक दिवस’ पर आप-हमको अब इस बात का भरोसा हो जाना चाहिए कि राजस्थान का शिक्षक समाज पूरी तरह अपने अधिकार, कर्त्तव्य और सम्मान से विमुख हो चुका है और शिक्षक संगठनों के साथ जुड़े 5 प्रतिशत शिक्षकों ने शेष 95 प्रतिशत शिक्षकों की मान-मर्यादा भी राजनेताओं के श्रीचरणों में समर्पित कर दी है। शिक्षा की देवी ‘सरस्वती’ और राजीव गांधी को एक साथ माल्यार्पण हो रहा है और चारों तरफ ही राजनेता ही हमारे शिक्षकों को ‘गुरूओं के गुरू’ की तरह उद्बोधन दे रहे हैं। सभी शिक्षक संघ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी राजनीतिक दल की छत्रछाया में चल रहे हैं, लेकिन किसी भी शैक्षणिक सम्मेलन में शिक्षा की गुणवत्ता, परिवर्तन और नवाचार की चर्चा नहीं हो रही है। शिक्षक का यह राजनीतिकरण हमें बताता है कि मुट्ठी भर शिक्षकों ने पूरे शिक्षक समुदाय को शिक्षा व्यवस्था का मौन और निष्क्रिय बंधक बना दिया है तथा जिस पार्टी की सरकार आती है वह सबसे पहले शिक्षक को ही मुर्गा बनाती है। यानि- ‘गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।’ का अर्थ आज के राजनीतिक दौर में बदल कर  ‘शिक्षक खड़ा बाजार में, खोज रहा सम्मान’ हो गया है।
राजस्थान में शिक्षक और शिक्षा का आज यह आलम है कि तरह-तरह के माफिया अपना दो नंबर का पैसा इन शिक्षण संस्थाओं में निवेश कर रहे हैं तथा जो राजनेताओं के आशीर्वाद से समाजसेवी और सुधारक भी बने हुए हैं। स्थिति यह है कि शिक्षा और साक्षरता के सभी अखाड़ों में शिक्षक और शिक्षाकर्मी केवल कर्मचारी व मजदूर बन कर रह गया है तथा विद्यार्थियों और समाज के प्रति वह अपनी कोई भूमिका नहीं निभा रहा है। ‘शिक्षक दिवस’ पर शिक्षा की इस दुर्दशा को कुछ इस तरह भी समझा जा सकता है कि- पूरी शिक्षा व्यवस्था के माई-बाप या तो सरकार के राजनेता है या फिर आईएएस अफसर है। कहीं कोई विभाग का मुखिया, कोई शिक्षक या शिक्षाविद् नहीं है तथा माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, पाठ्य पुस्तक मंडल, भाषा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी., सर्व शिक्षा अभियान जैसे सभी संस्थान भी सरकारी लकीर के फकीर बने हुए हैं। भाजपा की सरकार आती है तो शिक्षा का ‘भगवाकरण’ हो जाता है और कांग्रेस की सरकार आती है तो ‘शिक्षक कांग्रेस’ सक्रिय हो जाती है।
कुल मिलाकर शिक्षा विभाग में शिक्षक की कोई औकात और हैसियत नहीं है। सारी शिक्षा व्यवस्था ‘जी.ओ’ से चलती है और शिक्षकों के तबादले सत्ताधारी राजनेताओं की डिजायर से ही होते हैं। मुझे तब अनिल बोर्दिया, ललित पंवार और अब श्यामसुन्दर बिस्सा जैसे शिक्षा निदेशक कहीं नजर ही नहीं आते हैं। यह शिक्षकों का दुर्भाग्य है कि आज भी अदालतों में सबसे अधिक मुकदमे शिक्षक ही लड़ रहा है तथा सरकारी शिक्षा और निजी शिक्षा की एक ऐसी महाभारत राजस्थान में चल रही है कि शिक्षक की आत्मा ही परमात्मा को प्यारी हो गई है। विद्याथी अपनी मेहनत से और अभिभावक अपने बच्चों के भाग्य से ही चल रहा है, परिणाम यह है कि आम शिक्षक से शिक्षा अधिकारियों का कोई रचनात्मक संवाद तक नहीं है। प्रत्येक शिक्षा मंत्री के घर और दफ्तर पर शिक्षक-शिक्षिकाओं के दुःख-दर्द की भीड़ लग रही है। ‘शिक्षक दिवस’ पर हर साल प्रदेश व केन्द्र की राजधानी में एक औपचारिक ‘शिक्षक सम्मान समारोह’ भी होता है, लेकिन यह कोई नहीं जानता कि इस ‘सम्मानित शिक्षक’ का चयन कैसे होता है और कौन करता है?
राजस्थान में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक विचारशील विभूतियां मौजूद हैं, लेकिन उनकी कोई पहचान और सुनवाई ही नहीं है। ‘लोक जुम्बिश’ जैसे शैक्षणिक प्रयोग धराशायी हो चुके हैं और राज्य प्रौढ़ शिक्षण समिति/संदर्भ केन्द्र जैसे आधारभूत संस्थान सर्वथा उपेक्षित है। पूरे माहौल में ही प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की उथल-पुथल दिखाई देती है। कोई नहीं जानता कि उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, अल्पसंख्यक ;मदरसाद्ध शिक्षा, सर्व शिक्षा, कृषि शिक्षा और संस्कृत शिक्षा के क्या हाल-चाल है? पूरे शिक्षा विभाग को शासन सचिव और मंत्री ही चलाते हैं तथा शिक्षा में सुधार व परिवर्तन की कोई बहस अथवा बातचीत शिक्षक से सीधे कभी नहीं होती है। उच्च शिक्षा का तो इतना बुरा हाल है कि एक सरकारी प्रतिनिधि ही प्रायः सभी विश्वविद्यालयों के कुलपति चुनने की समिति में सक्रिय है और स्थिति यह है कि राज्य के 9-10 प्रतिशत विद्यार्थी ही उच्च शिक्षा में जा रहे हैं तथा शिक्षक वर्ग का पूरा संघर्ष ही तबादला, मंहगाई-भत्ता, प्रमोशन और छठे वेतन आयोग के लाभ में सरकार की परिक्रमा कर रहा है। शिक्षक का यह एक दिन ;शिक्षक दिवसद्ध तथा सरकार और बाजार के 364 दिन इसीलिए हमें याद दिला रहे हैं कि- राजस्थान में ही नहीं, पूरे देश मंे शिक्षक का महत्व आज ‘महानरेगा’ के मजदूर से भी कम है।
आजादी के 64 साल बाद ‘शिक्षा का अधिकार’ राजीव गांधी की मार्फत हमें सौंपना भी इस बात का प्रमाण है कि- अब शिक्षा पाने के लिए भी गरीब को ही संघर्ष करना पड़ेगा, क्योंकि सरकार के पास 10 लाख शिक्षक, 15 हजार करोड़ रूपये और स्कूल भवन, पुस्तकालय, सुलभ शौचालयों व प्रयोगशालाओं का अभाव है। इसलिए अब स्वयं शिक्षक को भी अपने गिरहबान में झांककर यह सोचना चाहिए कि- वह शिक्षक क्यों हैं? और, वह कब तक इस आने-जाने वाली राजनीति की पालकी को ढोता रहेगा? इस 21वीं शताब्दी में भी यदि वह ‘कर्मचारी’ जैसा आचरण ही करेगा और अपने प्राथमिक कर्त्तव्यों को भूल जाएगा, तो यह बात भी तय ही है कि- वह शिक्षा और समाज का आदर भी नहीं पा सकेगा।
मुझे पता है कि राजस्थान में शिक्षक भी ग्रामीण राजनीति का पुराना शौकीन है तथा पटवारी-सरपंच और ग्रामसेवक के साथ जुड़कर चुनावी संतुलन करने का भी आदी है। लेकिन, शिक्षक को यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि यह राजनीति ही शिक्षक को शासन व्यवस्था का ‘गुलाम’ बना रही है और वह ‘जिन्दाबाद-मुर्दाबाद’ के बीच की गहरी खाई में फंसा हुआ है तथा अपने आत्मसम्मान को भी भूल गया है। अतः शिक्षक को सबसे पहले अपने मन, वचन, कर्म से ही साक्षात्कार करना चाहिए।





- वेद व्यास

‘भाईचारा फाउण्डेशन’

7/122, मालवीय नगर, जयपुर (राज.)

मो. : 94140-54400

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